५ जून २०१७
एक और रात नींद को सिरे से ख़ारिज़ करने के लिए आमादा थी। भीषण गर्मी से भट्ठी हुए कमरे में तंदूरी नाइट का खौफ सर पर आग के शोलों की तरह धधक रहा था। खुद से लंबे झगड़े के बाद खाली शाम हाँथ आयी चिल और मस्त रहने की सलाह ने बियर शॉप की राह दिखा दी। दो अदत चिल्ड बियर शरीर और रूम टेम्परेचर को दो घंटे ट्यून करती रही। घूंट घूंट रात बामुश्किल आधा सफर ही तय कर पाई। ख़्वामखां जौं के पानी से उम्मीद लगाई...आधी रात न नींद थी, न बेवक़्त किसी पुकार कि गुंजाइश और न ही नशा। अचानक जेहन में रमज़ान के वक़्त पुराने शहर के रौशन चौक चौराहे याद आये। पुराने शहर ने कई बार पहले भी नींद से छूटे अकेलेपन को भरा है। सोसाइटी के गार्ड की नींद तोड़ने का गिल्ट लिये निकल भागा अपने शहर में दूसरे शहर की ओर। रास्ते भर सड़कें खाली, जाने और आने वाली सड़कों के बीच डिवाइडर पर कतार में सोती सैकड़ों बेधड़क नींद। पुराने लखनऊ की गलियां सोई पड़ी थी। चौराहे पर इक्का दुक्का चाय की दुकान।
राम जाने रमज़ान के वक़्त कभी जश्न में डूबे शहर को अब हुआ क्या है ? अमीनाबाद, चौक, ठाकुरगंज दुकानों के ग्लो साइन बोर्ड चमक रहे थे। सहरी के वक़्त की तैयारियों में बाज़ार गुलज़ार नही था। अवैध बूचड़खाने, कुछ एक किस्म के गोश्त पर पाबंदी के सरकारी फरमान के पर्चे सड़कों, गलियों और चौराहों की हवाओं में चिपके हुए थे। शायद इससे ज्यादा कोई पाबंदी नही लगाई गई। फिर भी एक अजीब सा खौफ है। चौराहों पर पुलिस की जीप के मत्थे पर कई तरह की रंगीन रोशनी आंख टिकने नही दे रही थी।
खामोश पुराने लखनऊ में रूमी दरवाज़ा बुलंद खड़ा किसी याद में डूबा हुआ था। रूमी, इक्के वाले कि शक्ल में सोए हुए थे अपने इक्के (तांगा) पर दरवाज़े के ही पास। सहरी के वक़्त की अज़ान के ऐलान के बाद पुराना शहर निकल पड़ा इबादतगाह की ओर। चिड़ियों की चहचहाट भोर की अगुवानी में पेड़ों को झींके दे रही थी। गाड़ी के दो पहियों में रात लिपटती हुई जा पहुंची नए शहर के लोहिया पार्क में। जहां जॉगिंग ट्रैक पर बेखौफ कदम ताल स्वस्थ हवा को महसूस कर रहे थे। बिना सोकर जागे ही आदतन मोबाइल खोल लिया, दूर कहीं दूसरे देश के शहर लंदन में आतंकी हमले की खबर ने स्तब्ध कर दिया। मोबाइल बंद कर, पार्क में एक झूले की झींक और ठंढी हवा के झोंके ने कुछ देर बहलाये रखा। दो किशोर कूद के झूलते हुए झूले पर सवार हो गए मेरे दाएं बाएं। मोबाइल गेम में खो गए वो दोनों। मेरे पैर जमीन से टिके झूले को झूंक देते रहे।
राम जाने रमज़ान के वक़्त कभी जश्न में डूबे शहर को अब हुआ क्या है ? अमीनाबाद, चौक, ठाकुरगंज दुकानों के ग्लो साइन बोर्ड चमक रहे थे। सहरी के वक़्त की तैयारियों में बाज़ार गुलज़ार नही था। अवैध बूचड़खाने, कुछ एक किस्म के गोश्त पर पाबंदी के सरकारी फरमान के पर्चे सड़कों, गलियों और चौराहों की हवाओं में चिपके हुए थे। शायद इससे ज्यादा कोई पाबंदी नही लगाई गई। फिर भी एक अजीब सा खौफ है। चौराहों पर पुलिस की जीप के मत्थे पर कई तरह की रंगीन रोशनी आंख टिकने नही दे रही थी।
खामोश पुराने लखनऊ में रूमी दरवाज़ा बुलंद खड़ा किसी याद में डूबा हुआ था। रूमी, इक्के वाले कि शक्ल में सोए हुए थे अपने इक्के (तांगा) पर दरवाज़े के ही पास। सहरी के वक़्त की अज़ान के ऐलान के बाद पुराना शहर निकल पड़ा इबादतगाह की ओर। चिड़ियों की चहचहाट भोर की अगुवानी में पेड़ों को झींके दे रही थी। गाड़ी के दो पहियों में रात लिपटती हुई जा पहुंची नए शहर के लोहिया पार्क में। जहां जॉगिंग ट्रैक पर बेखौफ कदम ताल स्वस्थ हवा को महसूस कर रहे थे। बिना सोकर जागे ही आदतन मोबाइल खोल लिया, दूर कहीं दूसरे देश के शहर लंदन में आतंकी हमले की खबर ने स्तब्ध कर दिया। मोबाइल बंद कर, पार्क में एक झूले की झींक और ठंढी हवा के झोंके ने कुछ देर बहलाये रखा। दो किशोर कूद के झूलते हुए झूले पर सवार हो गए मेरे दाएं बाएं। मोबाइल गेम में खो गए वो दोनों। मेरे पैर जमीन से टिके झूले को झूंक देते रहे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें