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सोमवार, 24 जुलाई 2017

29 jun २०१७ 

सुनो भीड़,
तुम वही हो न, जो एक गोली, एक चाकू, एक लाठी, एक नोटिस, एक थानेदार, एक नेता, एक सरकारी बाबू, एक धर्म रक्षक से डरते हो और उनके इशारों पर नाचते हो। तुम वही हो न, जो घरों में महीनों गंदे पानी की सप्लाई पर कुछ नही बोलती। तुम वही हो न जो दिन दहाड़े सड़क पर तमंचा लहराते हुए बदमाश को देख कर खिसक लेती है। तुम वही हो न जो किसी गर्ल्स कॉलेज के सामने लड़कियों को स्कैन करती आंखों पर चुटकियां लिया करती हो। तुम वही हो जो घंटों लंबी कतार में इंतज़ार करती देखती है किसी रसूख वाले को कतार के नियम तोड़ते। तुम वही हो न जो सड़क पर मर रहे इंसान, जानवर को देखती हो दया और करुणा के भाव से और च च च...बेचारा कहकर किस्से बना देती हो। तुम वही हो न जो घंटों हज़ारों लाखों की संख्या में हाँथ जोड़े, आंख बंद किये मंद मंद झूमती हो आध्यात्मिक पांडालों में। तुम वही हो न , जो अपना सम्पूर्ण जीवन परिवार के कुछ लोगों की देख रेख, उनकी परवरिश, उनकी आर्थिक सामाजिक सुरक्षा, उनकी ऐशो आराम में झोंक देती हो। तुम वही हो न, जो किसी अपने के अंतिम संस्कार में अधिक से अधिक संख्या में पहुंचती हो और उनके परिवार को ढांढस बंधाती हो। तुम वही हो जो सपनों की खेती देखने जाती हो रैलियों में, तुम वही हो जो धार्मिक स्थलों पर जाती हो अपने बिगड़े को सुधारने के लिए।
ओ भीड़ जब तुम इतना भयभीत रहती हो हर समय, तो तुम्हारे भीतर किसी व्यक्ति को पीट पीट कर मार डालने की हिम्मत कहां से आती है ? कैसे तुम्हारा गुस्सा बेकाबू हो जाता है किसी व्यक्ति विशेष से, किसी घटना से कि उग्र जानलेवा जानवर की तरह टूट पड़ती हो उस पर। कैसे निकाल पाती हो समय अपने व्यस्ततम समय से, सड़क पर न्याय देने का। तुम्हारी खीज तुमको वहशी बना देती है। तुम लाखों करोड़ों की तादात में होते हुए भी डरती हो असुरक्षित महसूस करती हो, तुम्हारे इस डर और असुरक्षा की भावना को भुनाया जाता है।
ओ भीड़ तुम्हे सिर्फ घर और काम करने वाली जगह तक सीमित रहना चाहिए आंख कान नाक बंद करके, तुम्हारा परिवार तुम्हारी ताकत है और वही कमज़ोरी, उतनी ही तुम्हारी जरूरत। तुम कम से कम में जीते आये हो, और उतने में जीने की आदत है। ज्यादा की चाह, उसे हांसिल करने और उसे भोगने की तुम्हे हांकने वालों की है। कोई एक ही क्षेत्र में ताकतवर है भीड़ से ज्यादा। वो एक एक मिलकर तुम्हारा इस्तेमाल करते हैं, तुमको डर के साये में रखने के लिए। तुम डरे रहते हो सरकार से , समाज से, अपने ईश्वर से, खुद अपने ही परिवार से। दीर्घकालिक डर...डर और डर की कुंठा से तुम बेकाबू हो जाते हो, और बनते हो हथियार उन्ही का जो तुम्हे डराना चाहते हैं। तुम्हारे डर से वो भी डर जाते हैं जो इनसे आज़ाद होना चाहते हैं।
भीड़ से छिटका हुआ शुभचिंतक
प्रभात

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