आज जब पढ़ी जा रही होंगी कविताएं प्रेम की,कोई सर झुकाये सुन रहा होगाकोई आँख मूंदे कविताओं में कविता हो रहा होगाकोई सोच रहा होगा क्या ऐसा भी होता है प्रेम मेंकोई उलटे सीधे कदमों से दौड़ रहा होगा अतीत से वर्तमान तककोई नया पाठक कोई नया श्रोता उन शब्दों से बनाएगा इंद्रधनुषकोई आवाज़ महीन से भारी हो रही होगीकिसी के प्रेम में रची गयी रचनाकार की कविताएँकिसी और के जुबान से धड़कने बन रही होंगीकोई गठरी भर लेकर जायेगाकोई छोड़ जायेगा पुरानी होती गठरी को वहीँ उसी जगहमैं हूँगा वहीँ अदृश्यन शब्दों में, न कविताओं में, न जुबान पर, न नज़रों में,न किसी के सर पर सवार, न चाय में...बस एक सांस में हूँगा...वो सब मेरे होने का उत्सव मना रहे होंगे।
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शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017
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नागरिकता !
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