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सोमवार, 10 अप्रैल 2017

जब तस्वीरें बोलना बंद कर दें !
तस्वीरें आज कल बात नहीं करतीं। जब भी कोई दृश्य अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश करता हूँ, दृश्य तेज़ी से दौड़ता कैमरे की पकड़ से भाग निकलता है। फ्रेम,कलर कम्पोजीशन, सब्जेक्ट, ऑब्जेक्ट, बैकग्राउंड, लाइट्स, इमैजिनेशन सब बनते बनते बिगड़ जाते हैं। इन सबको अपनी अपनी पड़ी है...और मुझे अपनी। कभी कभी ख्याल आता है...जब नहीं बनती तो छोड़ दो कुछ दिनों के लिए...पर छोड़ना क्या होता है ? छोड़ना, पकड़ना, ढील देना, छूटने के डर से कसके पकड़े रहना...हा हा हा। छोड़ने की कोशिश खुद को छेड़ना है। तस्वीर अच्छी बनेगी या खराब...कौन तय करेगा ? अच्छी तस्वीरों में क्या अच्छा होता है...आँखों को सुख और दिल को सुकून देने वाला अच्छा होता है... ? दिल और दिमाग को झकझोर देने वाला सत्य का दृश्य अच्छा होता है...? या दुःख के नितांत अँधेरे में सुख की चाह के रोशनदान अच्छे होते हैं..? भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया में संवाद बंद हो जाए, तारतम्य बिगड़ जाए, चाल का तालमेल बिगड़ जाए...तो अच्छा बुरा सर पर सवार हो जाता है...बाहर की दुनिया को बाहर की दुनिया में रजा बसा चाहिए। भीतर वाला भीतर में गुम हुए खुद को तलाशता है...खुद पूर्ण होने के बाद ही बाहर से बचे रहते हुए बाहर देखना चाहता है... सच पूछिये तस्वीर वही अच्छी होती है...दृश्य हैं, कैमरा है, मैं हूँ, नज़र है.. पर तस्वीर होने की प्रक्रिया के अंतिम चरण में हाँथ काँप जाते हैं...कांपते हांथों की तस्वीरें पसंद नहीं की जाती हैं...पता है मुझे भाई...पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता...मुझे भरोसा है...तस्वीरें फिर से बात करेंगी मुझसे ठहर के...इत्मीनान से...!

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