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सोमवार, 10 अप्रैल 2017

हा हा हा !
हंसना नहीं होता हमेशा
तीखा कटाक्ष हो सकता है
महसूस होना बंद चुके दुःख की चीत्कार हो सकता है
जब दुःख, पीड़ा, सहन के परे
सुने, दिखे, महसूस न किये जाने के परे
भीड़ में अकेले पड़ जाने पर

हा हा हा
भावशून्य सहमति होता है

जैसे राख हवा में उड़ती है
कागज़ की, पेड़ों की, इंसान की,
एहसासों की उम्मीदों की
एक सी !

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