सवाल जीवन के मुखर होते अचानक
तेरे,मेरे, सभी के !
नस्तर से चुभते सवाल
मेरे रोम रोम को
दर्द कि असीमित श्रंखलाओं में
पिरोते हैं ,
निरुत्तर कराहता मैं
जुटाता हूँ साहस
दृढ़ता से उत्तर देने को
सब सवालों का,
पर सवालों का पैनापन
नहीं भेद पाता
मेरे धैर्य को
मालूम है
कोमल झूठ के तानों बानों का
बुनकर
मेरे ही अंदर
पनपता इंसान
घूमता है तुम सब कि
खुशियों के इर्द गिर्द
सवाल सवालों का नहीं यहाँ
सरोकारों का है
जीवन के अंतिम साँसों
के साथ
जब सरोकार जाते रहेंगे
जवाब रिक्त से भरे हुए
खुद ब खुद मिल जायेंगे …… प्रभात सिंह
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