" सब कुछ तो कहा जा चुका है हमारे बीच . अब कहने सुनने को कुछ बचा नहीं ." तुम्हारा यही जवाब मैं लिए लिए फिरता हूँ . पर यह जवाब मेरे लिए काफ़ी नहीं रहता . बनिये की तरह जब मैं तुम्हारे इस जवाब को आने वाले समय के साथ तौलता हूँ . तो जीवन का हिसाब किताब गड़बड़ाने लगता है . उम्मीद का जहाज डगमगाने लगता है . तुम्हारी ही कही हुयी कोई बात , मेरे लिए सबक का ककहरा बन जाती है . जीवन के सूक्ष्म तत्वों में फैलाव की असीम संभावना बन तुम मुझमें भर उठती हो .
मैं खुद से बे - अदब तौल करने की शिकायत करता हूँ . डांटता हूँ खुद को .. कई बार रूठ कर बैठ जाता हूँ खुद से. अंततः सोचता हूँ मेरा रूठना तुम्हारे रूठने से कहीं कम है . यह रूठना मनाना चलता रहता है खुद से . जानता हूँ इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं , जो मुझे तुम तक ले जा सके . सारे रास्ते तुमने बन्द कर रखे हैं . रास्तों का बन्द होना , मुझे मेरे भीतर के रास्तों के खुलने जैसा आभास कराता है . सब कुछ तो कहा जा चूका है . सारे रास्ते तय हो चुके हैं . बाहर के .
तब तुम्हारी गूढ़ जीवन सी भरी बातें मेरी समझ से परे थीं . मैं अक्सर तुम्हारी बातों को हवा में उछालता . दूर छिटक के खड़ा हो जाता . तुम्हारी बातों को बारिशें बनते देखता . तुम उनके माध्यम से प्रेम में डूबी हुयीं स्त्रियों की कहानियाँ कहतीं . मैं हसंता , मुस्कुराता आगे बढ़ जाता . तुम अचंभित मुझे उस पल से बिना किसी भार के निकलते हुए देखती .
उफ्फ्फ !!!!!!!!!
तुम्हारे टूटने में कोई आवाज़ नहीं होती . बड़ी साहिस्तगी से तुम उसे गहरे जुड़ने से जोड़ देती . पर रूठना तो दिमाग की एक रासायनिक प्रतिक्रिया है . तुम्हारे रूठने से मैं डर जाता . छिप के किसी किशोर प्रेमी की तरह रोते रोते रटता रहता . एक बार बात कर लो ! एक बार कॉल उठा लो ! एक बार मेरे मेसेज का जवाब दे दो ! एक बार मिल लो ! कुछ भी न हो सके तो कम से कम एक बार मुझे एहसास दिला दो कि तुम हो मेरे लिए, मेरे साथ . तुम कहती आभासी दुनिया कोई दुनिया है क्या !
हुंह !!!!! साथ ..... कैसा साथ ?
सच ! हमारे बीच अब फासला ही बचा है .
जैसे हमारे बचे हुए जीवन का फासला !
बड़प्पन - लड़कपन का फासला !
हमारी आजादी का फासला !
हमारे एकांत का फासला !
हमारे फैलाव का फासला !
मुझे मालूम है . जिस रास्ते तुम्हे जाना नहीं, उन रास्तों का पता तुम अपने पास नहीं रखती . तुम्हारे जड़ अनुभवों से उपजे निष्कर्षों ने तुम्हे कठोर बना दिया . नमी अब तुम्हारा स्वार्थ है . तुम्हारे कहे को अनसुना करना तुम्हे बर्दाश्त नहीं . सब कुछ तो कहा जा चुका है हमारे बीच . अब कहने सुनने को कुछ बचा नहीं.
फिर भी , मैंने सुने जाने की जिद दिल - ओ - दिमाग में पाल ली है . जिद फितूर नहीं होता शायद . धीरे धीरे सुने जाने की अर्जियां बेचारी होने लगती हैं . बेचारगी की लम्बी तानों के बीच एक स्वर " पता नहीं " का फूट पड़ता है . स्वर के फूटते ही मैं खाली हो जाता हूँ . "पता नहीं" राज पथ हो जाता है .
मन करता है "पता नहीं" को सीने से लगाये चलता रहूँ जिन्दगी भर . ठौर मिले तो सुकून से छलक जाऊं . एक ऐसा सुकून जैसे नदी एक छोर पर आकर ख़त्म हो जाए . सिर्फ मेरे लिए . उसके बाद कोई सवाल न पूछा जाए . बहस की कोई गुंजाइश न रहे . मैं चुप , उस चुप पर उठने वाले सारे सवाल चुप .
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