इन दिनों सब गड्ड मड्ड हो रहा है . लाक डाउन की लम्बी अवधि ने सब कुछ उघाड़ के रख दिया है . वक़्त , लोग , रिश्ते , दोस्त , सरकार सब फ़िल्टर हो कर आ रहे हैं कहीं से . पुख्ता सूचना के अभाव में जो जितना उपलब्ध हो जाए वही बहुत लगता है . दो वक़्त की रोटी हमें नसीब हो रही है , इससे बढ़कर क्या चाहिए हमें ? इस एक सवाल में हजारों उत्तर खड़े हैं हमारे सामने . एक महामारी ने हमारे विकासशील मष्तिष्क को सबक सिखाने की ठान ली है . हमें घुटनों पर टिका दिया है . जिस सभ्यता को विकसित करने में सैकड़ों साल लगे . जिस जुड़ाव को विकसित करने और जरूरतों को पूरा करने के लिए हमने देश दुनिया की सीमायें लांघी , उसी पर एकदम से ब्रेक लेने की चुनौती चट्टान की तरह खड़ी है .
संक्रमण काल के तीन माह गुजर जाने के बाद भी दुनिया बचाव के प्रभावी साधन नहीं ढूंढ पायी . विकासशील और विकसित देशों के रूप में बटी दुनिया अपनी देश को सँभालने में अक्षम है तो वो दूसरों कि मदद क्यों करे और कैसे करे !सावधानी और पैनिक के बीच का फासला अब लगभग ख़त्म होता दिख रहा है . लाक डाउन की आड़ में हम सावधानी को आम लोगों तक पहुचाने में विफल हो रहे हैं . " जो जहाँ है वो वही रहे " योजना को हमने पहले ही ध्वस्त कर दिया . "वो " का डर अभी भी बरकरार है . डींगे हांकते हुए हमने "वो " की शक्ल कल्पनाशीलता और वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर ढूंढ ली. लक्षणों और काल खंड के आधार पर एक अच्छा सा नाम भी रख ही लिया, उसके अस्तित्व में आने के ठीक बाद . इतने दिनों तक " वो " नाम सुनते सुनते कान पाक गए हैं , अब वो नाम लेने में बहुत अटपटा लगता है .
हमारे पैर अनिश्चितताओं कि बेड़ियों में जकड़े हुए हैं . ये संकट नहीं त्रासदी है . हमारे जीवन पर पड़ने वाले असर का आंकलन करना बहुत मुश्किल है . जो हो रहा है उसे स्वीकार करते जाने के अलावा कोई चारा नहीं सूझता .
एक तरह से देखा जाए इस नए अनुभव में हम सब अपनी अपनी तरह से अभ्यस्त होते जा रहे हैं. बोरियत , अवसाद , खीज , एकाकीपन ने बीमारी की शक्ल ले रही है . शरीर की तकलीफ दिखती है दर्द होता है तो दवा भी हो ही जाती है. दिमाग में चलने वाली गतिविधियाँ केवल महसूस की जा सकती हैं . उनके महसूसने को कुछ देर के लिए टीवी , मोबाइल , किताब व अन्य संसाधनों से भरमाया जा सकता है . लेकिन वो हमारे व्यवहार में परिलक्षित हो रही हैं . दूरियों को नज़दीक से ठीक करने के भ्रम , पास के झंझावातों से दूरियां बढ़ने का डर . हावी है सब पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से .
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