" मेरी पसंद कि कविताएँ " कार्यक्रम के तहत वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना द्वारा अपने पसंदीदा कवियों की रचनाओं के पाठ पर एक रिपोर्ट
30 अप्रैल 2020 , दिन गुरूवार सायं 6 बजे लखनऊ से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कविता कारवां के फेसबुक पेज पर लाइव आकर अन्य कवियों की कई कविताओं के अंश पढ़े . बड़ी ही सादगी से उन्होंने कंठस्थ रचनाओं के अंश का पाठ करते समय कई बार दोहराया कि "जो कविता स्मृति में नहीं वो कविता कहीं नहीं हैं. किताब से देखकर कविता पढने की मेरी आदत है नहीं . जो कविताएँ मुझे अच्छी लगती हैं वो किसी न किसी तरह से मेरे दिल में उतर जाती हैं . हो सकता है मेरे द्वारा पढ़ी गयी कविता में पूरी पंक्तियाँ न हो पर उसका न्युक्लिअस या उसका मर्म मेरे भीतर उतरा है."
जाहिर तौर पर यह बात उनके पाठ के दौरान हमेशा चरितार्थ होती रही, उनके पसदं के काव्यांश , उनके रचनाकारों और कविता के शिल्प पर बात करना ऑनलाइन श्रोताओं को खूब भाया. साथ ही साथ कविता के सौंदर्य को फिल्म , नाटक , संगीत , पेंटिंग और कला के साथ जोड़ना
पहली कविता के रूप में नरेश जी ने गीत चतुर्वेदी अनूदित फ़ारसी के इरानी कवि सबीर हका की कविता " शहतूत " सुनाई. " क्या आपने कभी शहतूत देखा है / जहाँ गिरता है, उतनी ज़मीन पर/ उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है। / गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं। / मैंने कितने मज़दूरों को देखा है/ इमारतों से गिरते हुए, / गिरकर शहतूत बन जाते हुए। " उन्होंने शहतूत के रूपक के रूप में इस्तेमाल होने को सराहा. शहरों की ऊँची ऊँची इमारतों में काम करते मजदूरों की पीड़ा स्मृति में बस जाती है.
सुशील शुक्ल की कविता "धूप" : धूप निकलती है / धूप से आगे / धूप निकलती है / धूप को पकड़ो तो / कुछ हाथ नहीं आता / धूप में खोलो मुट्ठी / तो फिर, धूप निकलती है. इस कविता को उन्होंने आज के करोना काल से जोड़ते हुए कहा कि हमने प्रकृति को मुट्ठी में कैद करने की कोशिश की, उसका परिणाम हमारे सामने है. प्रकृति को हमेशा आँचल पसार के लेना चाहिए.
कविता के मर्म के द्रष्टिकोण से उन्होंने कहा कि कविता विवरण में नहीं होती . यह बात हम में से बहुत सारे लोगों को समझनी चाहिए. कविता में विवरण की जरुरत अक्सर नहीं होती . उसे सूक्ष्म होना होता है. वो चार पंक्तियों में अपना काम कर देती है. कविता अपने शब्दों से ज्यादा कहती है . अज्ञेय और केदारनाथ सिंह के काव्यांशों के साथ उन्होंने कहा जिसमें रूपक अच्छा होता है तो वो सहज रूप से हमारी स्मृति में चली आती हैं. सब कुछ भाषा से ही नहीं कहा जाता है. हमारे पास शब्द बाद में आते हैं अर्थ पहले आ जाते हैं. शब्दों को हम तलाश करते हैं कि कैसे कहें उस अर्थ को . भाषा शब्दों की मोहताज नहीं होती बहुत बार वो बिम्बों से , ध्वनियों से अभिव्यक्त होती हैं.
फिल्म मेकर आइसेस्टाईन के काम की सराहना करते हुए उन्होंने कहा कि जब हम किसी द्रश्य को देखते हैं सिर्फ उस बिम्ब को नहीं देखते हर द्रश्य की अपनी आवाजें होती हैं, गंध होती है . इसी क्रम में उन्होंने ऋत्विक घटक की फिल्मों का भी जिक्र किया.
विनोद कुमार शुक्ल की कविता "एक भारी गोल पत्थर/ एक दुसरे भारी गोल पत्थर पर इस तरह से रखा है/ कि जैसे अभी अभी गिरने को है / और जो अभी अभी गिरने को है वो कबसे नहीं गिर रहा/ जो अभी अभी गिरने को है उसके नीचे एक चरवाहा आकर के खड़ा हो गया है . इस कविता में जो गिरा नहीं वो प्राचीन है " कविता में जो अभी अभी गिरने को है वो नया है. कविता में वो अभी अभी गिरने को कई बार एक संज्ञा के रूप में इस्तेमाल किया गया है . इसी प्रकार से उन्होंने रायपुर छत्तीसगढ़ से अलोक श्रीवास्तव की कविता " एक फूल खिला" की पंक्तियाँ पढ़ी . अज्ञेय की कविता " दुःख सबको मांजता है ".. को कम शब्दों में बहुत प्रभावशाली बताया . उन्होंने कहा शब्दों का प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए . हर बड़ा कवि शब्दों को लेकर बहुत सावधान रहता है.
राजेश जोशी की कविता बर्बर सिर्फ बर्बर थे / उनके हाँथ में धर्म की कोई ध्वजा नहीं थी / बर्बर सिर्फ बर्बर थे /भाषा का कोई छल उनके पास नहीं था / बर्बर सिर्फ बर्बर थे /दुःख और पश्चाताप जैसे शब्द भी नहीं थे उनके पास /बर्बर सिर्फ बर्बर थे . हम उन्हें युगों पीछे छोड़ आये हैं ..... नरेश जी ने बताया कि इस कविता में आखरी वाक्य एक पूरे युग की कहानी कह देता है.
पंजाबी कवि जगदीप सिद्धू : उसने ख़ुदकुशी के बारे में सोचा / छत से कूद के मरने के बारे में सोचा /गाड़ी से कुचल के मरने के बारे में सोचा /फिर सोचा डूब के मरा जाए /फांसी लगा के क्या मरना.....अंत में कवि मरने के सारे उपायों में तिनका तिनका जीवन ढूढ़ लेता है और मरने का फैसला स्थगित कर देता है. कार्ड सैंडबर्ग की कविता "घास का मैदान" , असद जैदी की "पुश्तैनी तोप" के कथ्य कि गहनता पर उन्होंने प्रकाश डाला .
मंगलेश डबराल की कविता : शहर को देख कर मैं मुस्कुराया और कहा कि यहाँ कोई कैसे रह सकता है, जब वो उस शहर को देखने जाते हैं तो वो वही के हो कर रह जाते हैं....मंगलेश डबराल की कविताओं के बारे में उन्होंने कहा कि उनकी कविताओं में आवाजें होती हैं . मंगलेश आवाजों के बारे में संवेदनशील हैं . आवाज़ों के बारे में हमें भी संवेदनशील होना चाहिए .
इस बात को और पुष्ट करते हुए उन्होंने फिल्म "मेढ़े ढाका तारा" का जिक्र किया जहाँ चीख एक लम्बे अलाप के रूप में निकलती है. रोगग्रस्त अपनी बहन के सामने, घर की जिम्मेदारी न उठा पाने की टीस की अभिव्यक्ति लम्बे अलाप से . कला के माध्यम से अभिव्यक्ति का एक और चित्रण पेश करते हुए नरेश जी ने मशहूर पेंटिंग "पिघलती हुयी घड़ियाँ" हवाला दिया. जैसे कि वो घड़ियाँ मोम की तरह विरूपित हो गयी हों ,उसमें घड़ियाँ अपने समय को विरूपित होते दिखा रही हैं . कोई भी विधा हो, हम उसका अतिक्रमण करते हैं कविता एक बहुत बड़ी विधा है. हम उनमें बिम्बों को लाते हैं, रूपक को लाते हैं, आवाजें लाते हैं, द्रश्यों को लाते हैं विचारों को लाते हैं, यह निबंध लिखने कि विधा नहीं है.
मुक्तिबोध की कविताओं के बारे में वो कहते हैं कि उनकी कविताओं के पीछे विज्ञान था, उनके पास विज्ञान का दर्शन था , मुक्तिबोध क्वांटम फिजिक्स की और जाते हैं उनके तमाम पहलुओं को अपनी रचनाओं में लिखते हैं. "ऋण एक राशि का वर्ग मूल" , "एक पाँव रखता हूँ तो सौ राहें खुलती हैं और मैं उन सब से गुजर जाना चाहता हूँ . उनकी कविताओं के पीछे एक विज्ञान का तर्क तथ्य और दर्शन दीखता है ...उनकी रचनाओं में ब्रम्ह राक्षस से लेकर खगोलीय गतिविधिया और वैज्ञानिक दृष्टिकोण महसूस होती हैं , जो केवल कल्पना नहीं हैं , उनके भीतर उनकी गहरी समझ थी.
नरेश जी साहित्य के पाठ्यक्रमों में कला की कमी को महसूस करते हैं , वो कहते हैं हमें सिर्फ साहित्य को ही पढाया जाता है. जिसमें न नृत्य से रिश्ता होता है, न कला से और न ही संगीत से . संगीत के बिना कविता कैसे हो सकती है ? गद्य में कविता होती है अच्छी कविता होती हैं . लेकिन ये कहना कि हमने लय को छोड़ दिया है तो यह समझ से परे है. लय को गृहण कर के छोड़ना ! छोड़ना होता है . बिना गृहण किये छोड़ना छूट जाना होता है . हम में से बहुत से लोग तो छूटे हुए लोग हैं .
कविताओं में तथ्यों के आधार पर सत्य रचा जाता है. अलग अलग काल खंड में अलग अलग लोगों द्वारा. जैसे कि कविता जीवन में उजाला लाती है . संस्कृत के आचार्य कुंतक , अज्ञेय , प्रसाद की रचनाओं में उजाला का चित्रण दीखता है.
रविन्द्र नाथ ठाकुर की बँगला कविता "काशेर बौने शुन्य नदी तीरे, एक्ला पथे के तूमि जाओ धीरे, आँचल आड़े प्रोदीप खानी ढेके " अर्थात कांस के बन में सुनसान नदी के तट पर धैर्यवान स्त्री आँचल में दीप को ढांके तुम कहाँ जा रही हो ? मेरे घर में अन्धकार है ये दीपक मुझे दे दो . वो कहती है मैं इसे तुम्हे नहीं दूंगी इसे तो मैं दीपकों की पंक्ति में रख दूंगी .... नरेश जी ने कुछ और पंक्तियों के सहारे रोशन करने के संवादों को याद किया. वो कहते हैं कि कविता की पहली पंक्ति जता देती है कि उसकी आधार भूमि कैसी है . फिर उसके ऊपर इमारत खड़ी होती है , जमीन की भार क्षमता होती है. इसलिए बिला वजह कविता को लम्बा नहीं होना चाहिए. कवि पहली पंक्ति का आविष्कार करता है . कविता भाषा की कला है .यदि सबको लगता है कि भाषा आती है तो कविता भी आती है . यह एक भ्रम है कि अपने विचारों को लिख दीजिये तो कविता होगी ! अगर लम्बी लम्बी लाइनों में लिख दीजिये तो वो निबंध है ! अगर छोटी पंक्तियों में लिख दिया तो कविता है . ऐसा नहीं होता . हर कला में अनुशासन के साथ नियम होते हैं . उनसे गुजरना होता है कवि को. उसका डिजाइन होता है और वो बनते बनते बनता है. शब्द गिरते नहीं है , एक बार लिख गए तो खड़े रहते हैं कागज़ पर . जब कोई पढता है तो उसके दिमाग वो इमारत गिर पड़ती है और फिर वो उसे नहीं पढता.
कविता की संरचना में एक डिजाइन होता है . पहले छंद होता थे , अब कवितायेँ मुक्त हैं . पर यह मुश्किल जमीन है . बहुत मुश्किल. उर्दू कविता में एक शेर की एक बंदिश होती है , वज़न होता है एक बहर होती है , रजीफ़ काफ़िया होता है वही अनुशासन होता है . हिंदी में हम उससे मुक्ति पा गए . हम जब गद्य में कविता लिख रहे होते हैं तो समझिये एक बहुत मुश्किल जमीन पर आ गए हैं. यह आसन नहीं है.
धूमिल' अशोक बाजपेयी, सोमदत्त , मलय , विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को याद करते नरेश जी बताते हैं विनोद कुमार शुक्ल बीस साल तक लिखते रहे किसी ने नोटिस नहीं लिया उनका . मलय की दशकों पहले लिखी गयी कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं : " दौड़ती हुयी सडक नदी में गिर पड़ी तो गति ने उसे हाँथ बढ़ा पार किया " , मेरी उँगलियों कि पोरों पर शंख है चक्र हैं और हथेलियों का समुद्र गरज रहा है ", सोमदत्त की कविता : " मेरे हांथों में में फूलों की डाली है और तुम्हारे हांथों में चावल की थाली, मैं फूल चुनके उदास हूँ और तुम पत्थरों को चुन के सुखी " .
मंच को छोड़ देना हिंदी कविता के लिए बहुत बुरा हुआ, पर जब जब बहुत गंभीर और अच्छी कविता मंच पर जाती है तो करोड़ों कमाने वाले मंच के कवि फीके पद जाते हैं. तुलसी , कबीर , रैदास जैसे कवियों कि रोटी कविता से नहीं चलती थी. सब कड़ी मेहनत से रोटी का इंतजाम करते थे . कविता कि यात्रा बहुत लम्बी होती है.
इकबाल की मशहूर " सितारों से आगे जहां और भी है अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं ." इकबाल की कल्पना में कविता अगर इश्क है तो इस इम्तिहान में फेल होने का धीरज भी होना चाहिए . पहुचते हैं वो बड़े धीरकज के साथ में . अच्छी कविता जब कोई सुनाएगा तो सुनी जाएगी.
कविता वही है जो आपकी स्मृति में है और जो कविता स्मृति में नहीं है वो कविता कहीं नहीं है. कविता जो स्मरणीय नहीं होगी तो रमणीय नहीं होगी . रमणीय होने के लिए उसे हमारे भीतर गूंजना होगा. और जितनी कविता हमारे बीच बची रह जाए वही कविता है.
कविता कारवां के आयोजन होते रहने चाहिए :
वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी तीसरी बार कविता कारवां की यात्रा के साक्षी बने हैं . उन्हें यह प्रारूप बेहद पसंद आया . जहाँ अपनी पसंद के कवि की बात हो , उनकी कविताओं का पाठ हो . वो पहली मर्तबे कुछ वर्ष पहले लखनऊ में आयोजित बैठक में शामिल हुए थे. दूसरी बार देहरादून में और 4 वर्ष पूर्ण होने पर कविता कारवां के फेसबुक पेज पर लाइव . दो बार उन्हें बहुत कम समय के अंतराल में इस कार्यक्रम की सूचना मिली . बिना किसी तैयारी के बावजूद उन्होंने सहजता से अपनी स्मृतियों में सहेजी कविताओं का पाठ किया. तथा अन्य कवियों के परिप्रेक्ष्य में अपने अनुभव साझा किये. यह सादापन इस कार्यक्रम और उनका सौंदर्य है. कविता कारवां परिवार आशा करता है कि आगे भी वह इस कार्यक्रम का हिस्सा होंगे .
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