मैं नहीं मानता आतताई व्यवस्था को
ठग पुलिस को ,
कुटिल जन प्रतिनिधि को
चौराहों पर खड़े गुंडों को ,
घरों में पड़े मुस्टंडों को
मैं नहीं मानता ईश्वरीय मान्यताओं को
बंधन में बंधे रिश्तों को,
पितृसत्तात्मक ढांचों को ,
रूढ़ियों की किरचों को
मैं नहीं मानता अपनी देह को
आती जाती सांसों को ,
चक्रव्यूह में फंसते मन को
अपने अकेलेपन को !
मैं मानता हूँ
समस्याओं के जड़ में बैठे
समाधानों को
कर्म को , प्रकृति को
सायास सरल रिश्तों को
और मृत्यु को !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें