होना संसार की
सबसे छल शै है ।
मैं जब नहीं था
और जब मैं हूं
या मैं था
और अब नहीं हूं
रहूंगा या नहीं
यकीनन नहीं रहूंगा ...
कौन आभास कराता है
मेरे होने न होने को
रोज़ पैदा होता हुआ मैं
या मेरे पहले
पैदा करने वाले मुझे ?
या फिर
रेंगती ज़िन्दगी में
होने की बाँट जोहते
बनते बिगड़ते समीकरण
घटनाएँ , परिद्रश्य....
थक चला हूँ
अपने होने का प्रमाण देते देते
कोई हक नहीं
मैं , मुझे मेरी जागीर समझूँ
बेदखली से डरूं
मैं रहूँ
शायद मैं न रहूँ ....
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