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सोमवार, 13 जुलाई 2020

अनाम !







मेरी देहरी पर गिरा शख्स
मैं ही था, और कोई नहीं
उठा, झाड़ा और
पार कर गया देहरी !

मेरा दोष था
मैंने ही देहरी
ऊंची रखवाई

खिड़कियों को
दरवाज़ा समझाया
गली कुंचों को फब्तियां
बाहर के भीतर को आंगन

वो जो गिर के
संभला मैं वो नहीं
वो तुम हो !

भरोसे की कतरनों को
सीती तुम
कौन हो ?

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