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मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

अब जब तुम मुक्त हो गए हो ...!


अब जब तुम मुक्त हो गए हो, तो मैं बस इतना ही चाहती हूँ कि तुम जहाँ भी रहो खुश रहो। इस मुक्ति को उत्सव समझो, मैंने इस मुक्ति को उत्सव की तरह लिया है। तुम्हे पता भी नहीं चला इस मुक्ति के लिए मैंने कितना सहा है। मैंने कितनी यातनाएं झेली हैं। तुम उन यातनाओं को समझ नहीं पाये कभी, इसलिए तुम्हे तुम्हारी ही दी गयी यातनाओं पर मेरी चीख से नफरत हो चली, घृणा हो गयी ! आज तुम्हे तकलीफ क्यों हो रही है ? मैं मुक्त हुयी हूँ तो तुम भी तो हुए मुक्त। नहीं हुए क्या ? अगर नहीं हुए तो ये मेरी समस्या नहीं है। मैं अपनी जगह सही हूँ । तुम नहीं थे इसलिए तुम्हे शायद तकलीफ हो रही है। लेकिन मेरी एक बात सुन लो, तुम्हारी किसी भी तकलीफ का मुझसे कोई लेना देना नहीं है अब। मैंने तुम्हे खूब समय दिया सम्भलने का, माफ़ी के शक्ल में मैंने तुम्हारी गलतियों को नज़रअंदाज़ किया। हर बार सोचा कि अब सब ठीक हो जायेगा। पर ठीक कहाँ से होना था, तुम्हे मुक्ति चाहिए थी। हां मैं फिर कह रही हूँ मुझे नहीं तुम्हे। तुम्हे ही मुक्ति चाहिए थी मेरे अंदर जन्मे तुम्हारे प्रति अविश्वास से,
मेरे अंदर घर कर गयी तुम्हारे प्रति दोहरे चरित्र की छाप से, तुम्हारे होते हुए भी मेरे अन्तस् मन को भेदती तुम्हारे कहीं चले जाने की असुरक्षा के भाव से, तुम्हे मुक्ति चाहिए थी। मैं समझाती रही तुम्हे हर उस वक़्त जब तुम मेरे साथ निश्चिन्त थे किसी अनहोनी के आहट के होने के बावजूद। मेरे असंख्य बार आगाह करने के बाद भी तुम रमे रहे अपनी धुन में। कहते रहे सब ठीक हो जायेगा, मुझे यकीन था जो अविश्वास मेरे भीतर मुझे अनचाहे तुमसे दूर ले जाने की चाह कर रहा हो उससे डर कर तुम मेरे और करीब आओगे ! लेकिन  तुमने उनपर सवाल किये, बहस की, झगडे किये। तुमने मेरी बदहवासी नहीं देखी और न कभी समझने का प्रयास किया। कि आखिर क्यों मैं तृप्त नहीं हो पायी तुम्हारे होते हुए। ये तुम्हे जानना था। क्यों तुम्हारे हाँथ का स्पर्श मेरे अंदर सिहरन नहीं पैदा कर पाया ? साल मौसमी कपड़ों की तरह तह होते रहे और निकलते रहे केवल पहने जाने के लिए। साल का कोई भी दिन बेचैन नहीं दिखा उस अविश्वास को तोड़ने के लिए। मेरे अंदर का अविश्वास तुम्हारा द्वारा बोया गया बीज था, और उस अविश्वास को लेकर तुम्हारी चिढन उसका पोषक बनी। आज इतने सालों के बाद फल तुम्हारे सामने है मुक्ति। जो तुम चाहते थे, मैं नहीं। तुम मुक्त हुए तो मैं मुक्त हुयी। 

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