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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

क्यों कि कलाकार कभी हार नही मानता !

इधर अत्यधिक काम के चलते फिल्में देखना बन्द सा हो गया है। महीनों से कोई फ़िल्म नही देखी, न कमर्शियल न आर्ट । पर हाँ पिछले एक महीने से एक फ़िल्म वाले के वेटिंग रूम या उसके बाहर कुल जमा 15-20 इंतज़ार के जरूर खर्च किए। इन इंतज़ार के घण्टों से मेरे भीतर के दम्भी पत्रकार ने इंतज़ार करना सीख लिया। और भी बहुत कुछ सीखा, पर वो साझा करना नही, सहेज के रखना चाहता हूँ ।
      कुछ दिनों पहले लखनऊ में फ़िल्म फेस्टिवल हुआ, 22 से गोआ में अंतराष्ट्रीय स्तर का फ़िल्म फेस्टिवल होने वाला है। न जाने कितने लोगों की मेहनत, पैसा, दिल दाँव पर लगता है। कोई दर्शकों के प्यार, कोई अवार्ड तो कोई कम से कम फ़िल्म के ऐसे अवसरों पर चयनित होने की ख़्वाहिश रखता है। पैसे कमाना तो इस इंडस्ट्री में दूर की कौड़ी है। जब पद्मावती जैसे बड़े बैनर की फिल्मों का हश्र सामने है तो छोटे - मोटे कलाकार कहाँ टिक पाएंगे। पर कलाकार कभी हार नही मानता। सृजन की धुन जगह नही देखती, पुरुस्कार नही देखती। सत्येंद्र करीब 15 साल से संघर्ष कर रहे हैं। उनका संघर्ष उनके भीतर की गंभीरता, अनुभव और हौसलों के पहाड़ से मापी जा सकती है। जीवन में कई चढ़ाव उतार की गणित में उतार का योग ज्यादा रहा। फिर भी अयोध्या जैसी छोटी सी जगह में रह कर उन्होंने वो काम किया जिसके बारे में सोचना इस क्षेत्र के पुरोधाओं की शायद बस की बात नहीं।
     अयोध्या की एक संकरी गली में इनका खुद का स्टूडियो है। स्टूडियो में इनहाउस शूटिंग के लिए सेट तैयार रहते हैं। प्रोडक्शन, डायरेक्शन, स्टार कास्टिंग, एडिटिंग, डबिंग, लोकेशन, प्रोमोशन और ऐक्टिंग समेत न जाने क्या क्या वो खुद ही कर लेते हैं। न कोई हंगामा, न कोई शो बिज़। बस काम काम और काम। उनकी ऐक्शन फ़िल्म " यू पी पुलिस रुद्र " इसी महीने के अंत में रिलीज़ होने को है। इस फ़िल्म का ट्रेलर देखने का आज अवसर मिला। यकीन ही नही हुआ कि इस फ़िल्म में एक गंभीर, रस्टी सा दिखने वाला लड़का बतौर लीड काम कर रहा है। फ़िल्म की लोकेशन में अयोध्या को ढूंढ पाना मुश्किल सा लगा। कम संसाधनों में एक्शन की बारीकियों को जस्टिफाय करने का प्रयास किया गया है। ट्रेलर से ऐसा प्रतीत होता है, जहाँ जहाँ फ़िल्म ने सत्येंद्र के समय और उसकी कार्य क्षमता के सीमा को लांघा है, वहाँ उसके ही जैसे किसी और सहयोगी के न होने की कमी महसूस हुई।

    फ़िल्म के सफल असफल होने की कहानी उसके रिलीज़ होने के बाद की है। अयोध्या फ़ैज़ाबाद जैसी जगह पर जहाँ शूटिंग, फ़िल्म मेकिंग, वीडियो कैमरा का मतलब  शादी विवाह, मुण्डन, बर्थ डे पार्टी की कैसेट तैयार करना हो। ट्राइपॉड को खूंटे की तरह एक जगह गाड़ के प्रवचन को रिकार्ड करना हो या छोटी छोटी क्लिप बना चोरी किये हुए भजनों से भक्ति अयोध्या का महिमा मण्डन किया जाता हो। वहाँ अपनी क्षमता से कहीं अधिक तन मन धन लगाकर किसी फ़िल्म को अंजाम तक पहुँचा देना बड़ी बात है। वो अपनी इस फ़िल्म के लिए न ही कोई अवार्ड का ख्वाब देखते हैं न ही कोई फ़िल्म नीति के तहत सरकारी इमदाद की। वो चाहते हैं कि उनकी इस फ़िल्म पर यू पी का ठप्पा लगा हो और दर्शकों की खट्टी मीठी प्रतिक्रियाएं। हालांकि इस फ़िल्म के रिलीज़ के बाद सत्येंद्र ने मुम्बई में काम करने का मन बना लिया है। वो यहाँ से हार के नही जा रहे हैं, वो अयोध्या, उत्तर प्रदेश  को जीत के मुम्बई को जीतने के लिए जा रहे हैं। हालांकि वो, राम की अयोध्या को प्रभु श्री राम की अर्धांगिनी द्वारा दिए श्राप को दोहराना नही भूलते, जिसमें अयोध्या में कुछ भी भली भांति सम्पन्न न होना था।

#राम_जू_की_अजोध्या

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