कोई आग है दबी सी
बरसों से सीने में
धधकती देहं से पिघला
यूं लावा कभी नही
लुढ़कती सुर्ख बूंदे
चेहरे से पसीने की
लरज़ती आँख का पानी
हुआ गाढ़ा कभी नही
दहर की पीठ पर बैठी
जो तुम मासूम सी
सिहर कर जान से जाना
जाना कभी नही
जलाने को मशालें
थीं बहुत अदीब की
तुम्हारी रूह ने लिक्खीं
किताबें कभी नही !
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