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मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

प्रिय पहाड़ , शायद तुम्हे छोड़ने आऊँ !

प्रिय पहाड़ ! 

तुम आ ही गए , यहाँ . मैदान में , खेतों में . तुम्हारी खुनकी करीब एक हफ्ते पहले महसूस हुयी थी . सुबह अपने खेतों की तरफ गया . तो देखा धान की पतवारों पर ओस की बूंदें झूम रही थी . मैंने ऊँगली लगाई और वो ओस मेरे ऊँगली के पोर पर उतर आई . खेतों में जलाई जाने वाली पराली आसमान के नीचे जमने लगी . दादा की झोपडी हलकी धुंध में दिख नहीं रही थी . दद्दू के ट्यूब वेल से पानी के साथ हलकी भाप सी दिखने लगी . दिन तेजी से ढलने लगे . शामें शांत होने लगीं . सामने वाले बाबा की झोपडी से पत्तों के जलने की चरचराहट सुनाई देती है साफ साफ़ . 
    बीच में दो दिन बड़ी गर्मी रही . लगा कि इस बार भी दिसंबर में ही आओगे . बस अपना तौर  दिखा के चले गए . गर्मी , उमस , काले बादल , 24 घन्टे  रिमझिम झड़ी के बाद तुम तो बौरा गए ! स्वेटर , कम्बल और लिहाफ निकालने तक का समय नहीं दिया . दिन भर हम सब ठिठुरते रहे . लोहे की बाल्टी में रखा रात का पानी जैसे बर्फ हो गया हो . नहाने के लिए एक मग्घा पानी काफी लगा . 
    हमारे कर्मचारी , आड़ ढूँढने लगे . अभी कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुझसे पूछा था . कैसा रहेगा मौसम अगला . मैंने कहा था पहाड़ आयेंगे ऊँचें ऊँचें . शायद हिमालय भी . अबकी ठण्ड रिकॉर्ड तोड़ेगी . बारिश के पहाड़ गिरे इस बारिश . तो ठंढ का भी पहाड़ आएगा यहाँ चल के . 
    मैं कई सालों से पहाड़ नहीं जा पाया . कई चट्टानें दरकिन हैं , कई बादल फटे हैं . फिर भी लाखों की संख्या में लोग पागलों की तरह तुम्हारी ओर खिचे चले आते हैं . सूना है उनके स्वागत में तुम्हारे कुबढ़ पर पांच सितारा व्यवस्थाएं रहती हैं . 
    खैर छोडो , बाकी बातें फिर कभी ....
तुम आये शीत लहर के रूप में . पीठ पर जली चमड़ी की पपड़ी अब उकत जायेगी . बिजली का बोझ कुछ कम हो जाएगा . बदन में चुस्ती फुर्ती बनी रहेगी . तुम्हे तो याद होगा कितनी बार मैंने तुम्हारे कन्धों पर पैदल यात्राएँ की हैं . तुम तो हवा में उड़ कर आये हो . जब से मैंने पहाड़ जाना छोड़ दिया है . वहां से कोई न्योता भी नहीं आता . उतरती सर्दी हो सकता है मैंने तुम्हे छोड़ने आऊँ ! 


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