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गुरुवार, 25 जुलाई 2024

आवारगी बेईमान !


एक दम निपट खाली 

आवारगी अपना चेहरा

बना लेती है सोंठ

की तरह 


आवारगी मोल लेती है 

अपना , अपनों के 

तीष्ण बाणों से 

सवालों से घिरी रहती 

पता पा लेने वालों से 

पता पूछती है 

गुमशुदा लोगों से 


विदा का खेल है

आना जाना और गुम 

रास्तों को भूलना 

बिना कोई ठेस पहुंचाए

निकलना कोई धोखा नही 


आवारगी धाम है मेरा

आवारा सड़कों पर 

निगाह ढूंढती है आवारा 

जंगली का ताज लिए 

घूमता हूं भटक जाने तक


काम से निकले काम 

की राह भटक जाना

गुण है शायद 

आवारगी का


घर में चावल , चीनी

लाने भेजा जाता है 

भटक कर झील की

राह आंखों में तैरते

सपने सुकून से देखता हूं 


रोज रोज भटकने का

मन करता जरूर है 

पर जाऊं कहां 

कितनी दूर , कितने समय को 

जाऊं , छूट जाए दिनचर्या

का भाव , बह जाएं

छूट जाने के दुःख 


सब कुछ हासिल करने

की ज़िद और आरामतलबी 

कभी न कभी छीन लेती है 

गतिशीलता के गुणधर्म को 


उम्र पर चढ़ती झाइयां 

राशन से निकलती नही


अटक जाते हैं हम

एक मकान , एक परिवार

एक जिंदगी 

के फेर में

देहरी के उस पार

भटकती दुनिया दिखती है ।



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