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गुरुवार, 18 जुलाई 2024

फिर वही चंडीगढ़ !



 चंडीगढ़ तो नाक में दम हो गई है । कमबख्त पीछा ही नही छोड़ती । जब पहली बार चंडीगढ़ गया था । तो जाने से पहले सोचा था । कि एक नई दुनिया से रूबरू होने का समय आ रहा है । पंजाब के किसी पिंड में लस्सी पियेंगे। खाएंगे पियेंगे , पंजाबियों को करीब से देखने का मौका मिलेगा । उनका रहन सहन । गांव शहर । पहले से पता था । कि लगभग बीस दिन का प्रवास रहेगा ।

उन बीस दिनों में शूटिंग के सेट का अनुभव कमाल का रहने वाला था । कितना अच्छा काम है न !  फिल्म लाइन । जाना  आना , रहना खाना । सब प्रोड्यूसर का । आप बस मन लगा कर काम करो । तय दिहाड़ी के साथ घर एक एक पैसा बचा के ले जाओ । और क्या चाहिए जीवन में । फिल्म वाले अजीब तरह के जुनूनी होते हैं । काम है तो काम पे काम काम पे काम । और नही है तो कल ऐसा हो सकता है । यहां जाना पड़ सकता है । कुछ भी हो सकता है कल । बस आप को उस कल के लिए तैयार रहना पड़ता है बस । 

अपने घर से लखनऊ , लखनऊ से दिल्ली , दिल्ली से चंडीगढ़ । लगातार बस इतना सफर है । हमें हमारे काम को समझा दिया गया था । बस चंडीगढ़ जाकर वहां के आस पास के क्षेत्रों में शूट कर के वापस । एडिटिंग का काम भी साथ साथ चलता रहेगा । ऐसा तय हो चुका था पहले । चंडीगढ़ में जाकर लगभग दो दो मिनट्स की 20 विग्नेट शूट करके । उनको एडिट कर के हाकिमों से अप्रूव करा के , दे कर चले आना था बस । इस छोटे से काम के लिए ।

बस द्वारा 28 से 30 घंटे की यात्रा कर मैं और एक ए . डी. दोनो चंडीगढ़ पहुंच चुके थे । बजट होटल की तलाश करते करते हम दोनों पैदल भटकते रहे । 17 ,22 जैसे सेक्टरों में बंटे चंडीगढ़ की दूरी हमने पैदल मथ डाली । होटल मिला साफ सुथरा मगर । 

इस यात्रा की नीव में एक बहुत बड़ा कन्फ्यूजन हमेशा साथ रहा । कंफ्यूजन यात्रा के ईंधन का खर्चा भर नही था । काम के लोड की अनिश्चितता भी सवार थी । 

हम दोनों पहुंच के होटल में सेटल हो गए थे । इस प्रक्रिया को सामान्य होने में 24 घंटे लग गए थे । हमने आस पास खाने पीने के कॉस्ट इफेक्टिव ठिकाने खोजे । बैट्री खरीदी , व्हाइट बोर्ड , मारकर और कुछ स्टेशनरी का इंतजाम कर लिया । होटल में ही कैंप कार्यालय । 

दो बड़े आई मैक के लिए अलग से टेंट हाउस की टेबल स्पेशल परमिशन के साथ लगाई गई । हमारी एडिटिंग टीम दिल्ली से आने वाली थी।  उनके आने से पहले हमें उनकी जरूरतों का ख्याल रखना था । तभी हमारे डेली शूट्स को वो रोज के रोज एडिट कर पाएंगे।  

कैमरा की एक टीम हमारी पहले से ही मुस्तैद थी । एडिटर्स आने वाले हैं  और उसके बाद डायरेक्टर साहब । बस सब कुछ कंट्रोल में रहेगा । 

मेरे लिए तो ये सब नया नया था । मैं कभी ऐसे प्रोजेक्ट पर नही गया अपने बलबूते । मेरा साथी इस फिल्म की दुनिया का पुराना खांटी तकनीकी जानकार था । मगर ... वो मूड में हो तो ... कहने के लिए मैं बतौर स्क्रिप्ट राइटर हूं । पर पक्का पता कहीं का नही । मीडिया फील्ड ही होती है । आलीशान ! इस परदे में दिखाने के लिए फ्रेम में कैद दुनिया है । और वही आवाज़ें जो कान को प्रिय लगती हों । पर असल में तकलीफ में ही आराम पाने जैसा कुछ । 

क्रांतिकारी बनने की उम्र में क्रांति के बदले शांति ढूंढने निकले थे । 

तीन दिन हमारे बिना काम शुरू हुए निकल गए । शूट के लोकेशन को लेकर हमें लीड्स बहुत कम मिल पा रही थी । उस अनजाने शहर में दिन भर रैपिडो खेलते रहे । तय समय से एक दिन बाद हमारा शूट लेट शुरू हुआ । हमने फैसला किया । कि जब तक हमें शूट की पर्मिशन नही मिल जाती । तब तक हम रैंडम शूट कर लेते हैं।  हमारे कैमरा मैन जो दो की तादात में आने वाले थे।  वो आए अकेले । 

पहले दिन हम लोगों ने एक टैक्सी बुक की । इससे पहले बजट डग्गामारी चलती रही । हमने जहां जहां शूट करने के लिए ग्रामीणों से बात की । तो वो मना करते गए । कुछ एक ने परमिशन दी भी । पर पता नही क्यों पंजाब के गांवों में कैमरे को लेकर खासा एलर्जी है । न उन्हे हिंदी समझ में आए और न हमें पंजाबी । तीर और तुक्के में एक गांव ने सहजता से स्वीकार भी किया । लेकिन बिना कैमरा के । चंडीगढ़ और आसपास के पंजाब में एक लय है । संपन्न गांव , मेहनत करते किसान , उस मेहनत को मनोरंजन के साधनों से बढ़ाना पंजाब का स्टाइल है । एक क्षेत्रीय मेले में जाती पंजाबियों की भीड़ और गन्ने के रस , हलवा पूड़ी पकौड़ों के भंडारे मोह लेते हैं । 

पर एक गांव के अंदर ही अंदर घुसते चले गए । एक समय ऐसा लगा कि निकलने सारे रास्ते गुम हो गए हैं । और उसी गांव में लोग शक की निगाह से देखने लगें । पंजाब और आस पास के क्षेत्रों में उस समय किसान अंडोलनाओं की वजह से अजीब सी सिहरन रहती थी । मीडिया , सरकारों से वो परहेज करने लगे हैं ।

शूट का पहला दिन हमारा बहुत ही खट्टा मीठा रहा । बिना किसी आधार के काम को शुरू करना और कुछ अच्छे रिलैक्स शॉट भी हासिल करना हमारे लिए उपलब्धि रही ऐसा कहीं दर्ज नहीं । दूसरे तीसरे चौथे पांचवें करते करते दस दिन बीत गए थे । मैं सुबह से लेकर शाम रात , लिस्ट पर लिस्ट ढूंढता , बात करता , लोकेशन को कन्फर्म करता । हमारी कैमरा की टीम उसी लोकेशन पर जाकर शूट करती।  शाम को हमारे एडिटर्स को खुराक मिलने लगी थी । 

शूट के पहले कुछ दिन पिछले होमवर्क से काफी सहूलियत हुई । लेकिन फिर संवाद की सहूलियत का क्या ! फोन पर बात होते होते सब कुछ ठीक । पर जैसे ही टीम वहां पहुंचे । लोग दूसरे के मोहल्ले बताने लगें । कभी कुछ समस्या कभी कुछ समस्या । हमारे पास वो दिन थका देने वाला होता । 

खाने पीने की जिम्मेदारी अब हमारे डायरेक्टर साहेब के कंधों पर थी । फिलहाल हमारे पार्टनर इनके सानिध्य में कुछ भी खा सकते हैं । पर उनके पहले वो सुदामा और कृष्ण दोनों एक साथ बनते थे । 

डायरेक्टर साहेब अपनी तरबियत के किस्से सुना सुना के सामने वाले को पानी पानी कर देते हैं । जो उस पानी पर चढ़ा । वो तब तक चढ़ेगा जब तक उसे डूब के निकलना न पड़े । 

सारे फिल्मों के हेड खुले हुए थे । कई दिन वो कुछ कुछ सीन के कतरनों का इंतजार करते रहे । हमारे शेड्यूल बिगड़ते जा रहे थे । डायरेक्टर साहब के हिसाब से उन्होंने इस बार भी कम बजट में हामी भर दी । बिना बजट के अपनी पॉकेट से काम भी शुरू कर दिया । बजट की कमी साफ साफ डायरेक्टर की पहसानियों पर नजर आती दिखी । हम में से कोई वापस नहीं जा सकता था । हमारे चंडीगढ़ में रहने की मियाद बढ़ती जा रही थी । हमारे घर वाले नाराज़ हो रहे थे । 

हमारी टीम के लिए बिना प्रोजेक्ट पूरा करे वापसी का रास्ता खुला नही था । आगे की राह भी प्रशस्त नही थीं । टेंशन अपने चरम पर थी । सब एक दूसरे से घबराने लगे थे । वही रोज रोज की माथापच्ची । काम खत्म होने का नाम ही नही ले रहा । 

डायरेक्टर साहेब की जिंदादिली ही उनको इस पेशे में रोक पाई है । डायरेक्टर साहेब मजदूरों के साथ , अपने सहकर्मियों के साथ और अपने क्लाइंट्स के साथ रंग बदल कर मिलते । उनके इस ट्रांजिशन में एक तिलिस्म सा है । 

उस तिलिस्म के चलते ही उनके साथ काम करने का एक अलग ही आनंद है । 

मैं और ए डी दोनों शुरुआत से अंत तक डटे रहे । 

शुरुआत में सिर्फ 20 फिल्में बनने की बात थी । 10 अंग्रेजी , 10 हिंदी । पर वो 40 हो गई । हमने सभी ने खूब मेहनत की । सभी फिल्में अपने आखरी चरण में थी। 

तभी हमें पता चलता है । कि अभी के लिए केवल 20 अंग्रेजी की फिल्में ही सिलेक्शन के लिए जाएंगी । हिंदी वाला मैं और एडिटर साहिबान की उपयोगिता खत्म होने की आहट हुई।  लेकिन ढेर सारे काम में आराम की तलब नही रखनी चाहिए । 

ये पूरा प्रोजेक्ट पहले दिन से आखरी दिन तक मेरे सर पर चढ़ के बोलता रहा । मुझे ऐसा लगता जा रहा था । जैसे मेरे ही कंधे पर पूरा प्रोजेक्ट आ गया है । क्रू का हर बंदा मुझे फोन करता । मेरा पार्टनर घर से खाली हाथ आया था । और मुझसे उसने यात्रा शुरू होने से पहले ही इस विषय में बात बताई थी । तब मैंने उसे अतिशियोक्त समझने की भूल की थी । 

मेरे साथ में आया पार्टनर शूटिंग के दौरान कैमरा हैंडलिंग करता पाया जाता । तो कभी चिंता न करने की बात कह कर कहता मालिक ! सुबह और शाम कुछ मूड बनाने की छटपटाहट मुझे काम में हमेशा अकेला कर देता थी । लेकिन फिर भी यदि कोई अनुभवी साथ में रहता है । तो अच्छा है । 

मैं हर बार हां कहने लगा । किसी भी काम के लिए न नही । दिन पर दिन बीत रहे थे । काम पूरा नहीं हो रहा था । घूम फिर कर सबकी निगाहें मेरी तरफ टिक जाती । मैं भी हां पे हां कहता नही थकता । एक दिन मेरा गुस्सा फुट पड़ा । न मांगने की आदत और हां कहे जाने की नई आदत को मैं बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था । इतना ज्यादा मैने सुन लिया था । कि मुझे कुछ और सुनाई देना बंद हो गया था । फिल्म के नाम से नफरत सी होने लगी थी।  

दरअसल ऐसा सब के साथ हो रहा था । 

मैं अपना ढेर सारा समय लाया था मांग कर । अपनी जमा पूंजी जोड़ के लाया था । कि कहीं इमरजेंसी में जरूरत पड़ी तो ... । पर इस यात्रा में शुरुआत से इमरजेंसी लगी रही । 

20 अंग्रेजी की फिल्मों का कंटेंट हमने दे दिया था । जो बची थी उनमें फाइनल करेक्शन होने थे । हम सब अपने अपने घर जा रहे थे । फोन पर जुड़े रहने की उम्मीद के साथ । इतने दिनों के बाद भी मैं कुछ नहीं ला पाया था । बाद में कई दिनों तक फोन पर घंटों काम की बाते होती रही । 

वो फिल्में ऑन एयर हो गईं । हमारे पास उन शूट में हिस्सा लेने वाले लोगों के फोन आते । टीवी पर शो के दिखाए जाने के समय के बाबत । 

इस दिन बहुत खुशी हुई थी । जब पता चला कि मेरे द्वारा किए गए किसी काम को नेशनल टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा था। बहुत समय तक इतनी खुशी ही इस पूरे प्रोजेक्ट का हासिल बनी रही । फिर एक दिन जमा खर्च की बहाली हुई । काफी समय बाद । ऐसे ही हैरतंगेज एक दूसरे प्रोजेक्ट में इस प्रोजेक्ट का अधूरा भुगतान हुआ । फिर भी मैं उछल गया । 

चंडीगढ़ से वापसी में मुझे मेरे ही मोहल्ले के कुछ लोग मिले । उनसे कह कर आया था । कि अब आना जाना लगा रहेगा । 

कई महीनों बाद , फिर से हिंदी फिल्मों वाली फाइल खुल गई है । उन फिल्मों का रूप रंग अब तलबगार को रास नहीं आ रहा । पिछले कई दिनों से चंडीगढ़ और पंजाब का साया मंडरा रहा है । फिल्मों को देने वाली डेट्स फिर से पार कर चुकी हैं । करेक्शन , कंटेंट ढूंढना , प्रिव्यू करना  और अंत में इन फिल्मों की प्रेजेंटेशन । ये सब काम पिछले कुछ दिनों से लगातार चल रहे हैं । मुझे फिर से दिल्ली , चंडीगढ़ जाने का दबाव बढ़ रहा है । फिर से मैं हां के फेर में फंस गया हूं । फिर से इमरजेंसी ही है । फिर से अगले प्रोजेक्ट के खूबसूरत होने की बात है । फिर से मुझे एक बेहतर फिल्मकार बनने की कूवत की याद कराई जा रही है । मैं रोज जाना टाल रहा हूं । 

मेरे भीतर पंजाब और चंडीगढ़ के काम को लेकर भरी दहशत को खत्म करना पड़ेगा । वो शायद कभी बिना काम के जाने से हो पाए । 

........ क्रमशः 

आधी रात बीत चुकी है । फिल्म के कंप्लीट करने का डेडलाइन मुंह बाए खड़ा है । बॉस काम को समय से पूरा करने की तसल्ली , अपने बॉस को दे रहे हैं । मैं जहां हूं , वहां से बहुत दूर हूं । दूरी होने की वजह से काम की चिंता तो दिन रात हावी है । पर काम की चाल लगभग शून्य पर अटक गई है । फिल्म का एडिटर दिल्ली में है । जो कहीं फूल टाइम जॉब करता है । फिल्म के डायरेक्टर साहब मुंबई में हैं । वो किसी जरूरी काम से हैं वहां । हमारे क्लाइंट दिल्ली और चंडीगढ़ में हैं । उनके पास हमारे जैसे कई लोग हैं देखने सुनने को । उनको काम चाहिए । हमारी व्यस्तताओं की कहानी नही । 

  पिछले कुछ दिनों से मैने हिंदी की 20 फिल्मों के लिए करेक्शन कई जगह , कई बार लिखे । डायरेक्टर साहेब की नसीहतों के नक्श ए कदम पर मैं चले जा रहा था । मेरे पास लैपटॉप या कंप्यूटर नही है । लिहाजा सारे काम फोन पर ही होते हैं । फोन पर स्क्रिप्ट लिखना । फोन पर कंटेंट रिव्यू करना , मिसिंग को ढूंढना फोन पर । बीस फिल्मों के कंटेंट को कई बार डाउनलोड करना , उनके साथ खेलना बहुत मुश्किल हो जाता है । और उबाऊ भी ।

  एडिटर जब जब करेक्शन की लिस्ट देखता है । तो भड़क जाता है । फिल्मों की एडिटिंग , कलर ग्रेडिंग , रिव्यू और अपीयरेंस को परखने के लिए हर बार आउटपुट निकाल कर लो रेज फाइल ग्रुप में डालना । प्रोजेक्ट को खोलने बंद करने में लगभग आधा घंटे का समय लग जाता है । ऊपर से इतनी बाधाएं । चंडीगढ़ चैप्टर का पहला फेज खत्म होने के बाद उसने चैन की सांस ली थी । कि अब वो इत्मीनान से शादी कर पाएगा । की भी । 

     पर कुछ ही महीने के भीतर इस प्रोजेक्ट का दूसरा फेज चालू हो गया । बड़े ही मायूसी भरे शब्दों में एडिटर साहब ने बातों ही बातों में बताया कि उन्हें इस काम के लिए कुछ भी नही मिला है । उन्हें मांगना अच्छा नहीं लगता । हमारी टीम में अधिकतर लोग ऐसे ही थे । जिन्हे मांगना अच्छा नहीं लगता । 

   पहली नजर में काम की पेचीदगी समझ नही आई । फिल्में अपने खांचों में फिट थी । बस थोड़ा नया अपडेट करना था । पर क्लाइंट को चाहिए था सब कुछ नए कलेवर में । इस काम को पूरा करने के लिए । हमारी टीम ने सोचा था कि कुछ दिनों के लिए चंडीगढ़ जा कर कुछ सीन्स , इंटरव्यू और प्रोफाइल शूट किए जाएंगे । पर ऐसा संभव नहीं हो सका । समयाभाव या धनाभाव कुछ तो जरूर रहा होगा । मुझे रह रह कर अपने इधर कही जाने वाली कहावत " थूक में सतुआ सानना" रह रह कर याद आ रहा था । 

इस पूरे काम के पहले चरण में जो दुश्वारियां मैने झेली थी । उनका असर मेरे दिल ओ दिमाग में गहरा था । मुझे चंडीगढ़ के नाम से नफरत होने लगी । मैने यह बात सिवाय अपने डायरेक्टर के किसी से नहीं साझा की । काम की भसड़ का पैमाना बहुत जटिल होता जा रहा था । और उस समय बॉस से हर्जा खर्चा तक की बात न हो पाना । मेरे लिए जग हंसाई का सबब बन सकता था । लगातार 20 दिनों तक कुछ घंटे की नींद । और जबरदस्त तनाव , दबाव में काम । हमारे बॉस का मानना था । कि यह पूरा प्रोजेक्ट मेरे लिए फिल्म स्कूल है । यह सब मेरे लिए पहली बार हो रहा था । 

ऐसा भी नहीं था । कि मेरे द्वारा कोई इतिहास रचा जा रहा हो । 

कुछ न कुछ तो लगातार मन में कचोट रहा था । कम संसाधनों में काम को पूरा करना , गिरी से गिरी स्थिति में काम को करने का मोटिवेशन हमारे बॉस का शगल है । वो अक्सर भविष्य के दिवा स्वप्न दिखा कर वर्तमान को पार कर जाते । और उनकी नांव में हम सब भी । 


  

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