कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

नागरिकता !


भारत का नागरिक होने के नाते

मैं और मेरी नागरिकता

मुझसे सवाल नहीं करती 


मैं हिन्द देश का नागरिक

हिंदू परिवार का हिंदुस्तान 

यूं ही नहीं बना


मेरे बाप दादाओं ने 

घोर तप , यज्ञ और मानताओं 

के बाद मुझे हांसिल किया 


खुशी का ठिकाना नहीं रहा

हिंदू कुल का वंश बढ़ाने

मैं , मां भारती में जन्मा 


पला बढ़ा संयुक्त परिवार

के मुक्त आंगन में 

और सयाना बना 

वीर सैनिकों के बीच 


एक युवा नागरिक

ऊर्जा से भरपूर 

लौटता है एक वरिष्ठ

नागरिक के वी. आर. एस.

के साथ 

अपनी जड़ों की ओर 


एक खिड़की 

एक दरवाज़े वाले 

दो कमरों का घर

घर में आजाद खयालों

के बंद दरवाजे 

मुझसे सवाल करने लगे


एक नागरिक को पता चलती है 

उसकी नागरिकता

जाति, धर्म , 

इतिहास और भूगोल 

की सीमाएं 


स्वजाति , स्वधर्म , स्वनागरिक

और स्व स्वभुगोल

के दायरे में नागरिक 

डूबता जाता है 


घर के मुक्त आंगन

से देश के मुक्तांगन

की उड़ी उड़ान 

यादों में जड़ होने 

लगती हैं 


 स्व

और स्वयं 

के घेरे में रचने बसने 

की नसीहतें कभी कभी

हिंसक होने लगती हैं 


भाषा की मर्यादाएं 

टूटने लगती हैं 

खाली बर्तन

टकराने लगते हैं 

सवालों के जवाब 

न दिए जाने में ही

समझी जाती है 

घर की भलाई 


नागरिक बदहवास 

छोड़ जाना चाहता है 

अपनी नागरिकता 

और उतार फेंकना चाहता है

अपनों का ढोंग 


तमाम भावनात्मक

बेड़ियों में उलझ 

आख़िर में वो 

स्वीकारता है 

नागरिकता 

कुनबे की 

वंशावली की 

और समाज की !



भेड़ों की भीड़ !

 


भीड़ में एक आदमी

गुम होता है 

जैसे भेड़ों में एक आदमी


आदम युग से

सीखता आया है आदमी

गुम होना

और भेड़ों को हांकना 


भेड़िया भेड़ के भेष में

भीड़ को रिझाता है 

उठा लाता है 

किसी एक भेड़ को 

दिखाने भेड़ियों के झुंड


सहमी भेड़ 

लाती है रोज 

एक और भेड़ को

भेंट में


भीड़ छटने लगती है 

भेड़िए के भेष में

भेड़ का चेहरा 

साफ होता जाता है !

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

जब पिता मर जाते हैं !



बच्चे मर जाते हैं 

जब पिता मर जाते हैं 

और मर जाते हैं 

बच्चों के भीतर 

अनुत्तरित हजारों सवाल 


बच्चे मर कर

जी कर जब 

बनते हैं एक पिता

तो मारते हैं एक

पिता को वो भी 


पिता पुत्र के बीच

की खाई को सिर्फ

मौन पाट पाता है 

संवाद के 

अनगिनत बहाने

ढूंढ लेती है

पिघली बर्फ


दोनों तरसते हैं

तिल तिल

गले मिलने को 

नहीं मिलते विचार

फिर भी आदतें

मिलती हैं 


शीत युद्ध के

कुचक्र से 

क्षत विक्षत 

पिसते हैं 

पिता पुत्र 

के संबंध

लंबे अरसे तक 


सम्मान की सफेद 

चादर में लिपटे

जज़्बात छटपटाते हैं 

आत्मग्लानि के बोध

से ढह जाते हैं

आशाओं के किले

और छत्र छाया

का आभास टूट कर

बिखर जाता है 

तब पिता के साथ

पुत्र भी नहीं रहते । 

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

ईद मलीदा !



मैं गया था और 

लौट आया सकुशल

बगैर किसी

शारीरिक क्षति

और धार्मिक ठेस के 


घनी बस्ती की संकरी

गलियों की नालियों में

कहीं खून का एक कतरा

न दिखा मुझे 

छतों पर पत्थर 

कमरों में तलवारें

चापड़, बंदूकें 

छुरी और

बम - तोप का

नाम ओ निशाँ न मिला


सफेद जो गंदा होता है 

जल्द , आसानी से 

पहने हुए लोग 

गले मिलते दिखाई दिए 

किसी की छाती पर

गंदगी नहीं दिखी


असलम , हामिद , रेहान

कुछ नहीं लेते आए हैं

दशकों मुझसे 

मैं ही जाता हूं

साल दर साल 

उनके घर ईद पर 


जुबां पर 

मां - बहनों के हाथों बनाई

किमामी सेंवई , दही फुल्की

छोले , ज़र्दा 

खीर का स्वाद 

और मुस्कुराहट के साथ

" फिर आना " की ताक़ीद 

ने कभी ठगा नहीं मुझे


बचपन से देखता 

आया हूं उन्हें 

क्लास में , बस में

खेल के मैदान में 

टेलर की दुकान में 

जूते के कुटीर उद्योग में

केमेस्ट्री के प्रोफेसर के घर में


कौन हैं वो

कहां से आएं हैं

और क्यों हैं वो यहां

कभी सवाल नहीं उपजा

दिल और दिमाग में


सवाल अजनबियों से होते हैं

या दुश्मनों की आहट से

दूरियां नजदीकियां 

शिकवे शिकायतें

कहां नहीं होते

मिलते रहने से 

मिटते हैं सारे भ्रम


मिलने से खिलती हैं

आपसदारियां

पनपती है 

विभिन्न रंगों से सजी

दुनिया की समझदारियां ।

नागरिकता !

भारत का नागरिक होने के नाते मैं और मेरी नागरिकता मुझसे सवाल नहीं करती  मैं हिन्द देश का नागरिक हिंदू परिवार का हिंदुस्तान  यूं ही नहीं बना म...