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बुधवार, 4 जनवरी 2017


उसकी रगों में रंगों के राग
रंग को पहनना और उसकी रंगत को जी लेना सबके बस की बात नहीं। वो आदतन अपने रंग को लेकर आश्वस्त रहती है। वो तपाक से हर उस बात को सिरे से ख़ारिज़ कर देती है जिसमें उसके सौंदर्य की सराहना किसी एक रंग के आधार पर होती है। उसके शरीर पर  गोरा, साफ़, सांवला और काला रंग कभी चढ़ा ही नहीं। चढ़ा भी तो टिका नहीं। टिकता कैसे, उस पर चढ़ने वाले रंग खुद ब खुद खिल जाते हैं...हरा,पीला,नीला,लाल,धानी,आसमानी,वाइन कलर और न जाने कितने रंग उस पर चढ़ते हैं और उतराने लगते हैं। रंग उसकी रगों में राग बनकर बजते हैं। पर वो उन रंगों की स्वाभाविकता को सहेजे रखने के लिए इतराती नहीं है। वो रंगों से खेलती है,उन्हें महसूसती है,उन्हें अपने ऊपर खिलने की आज़ादी देती है। और खुद उनमें खो जाती है। एक बार की बात है उसके ऊपर पीला धधक रहा था,उसके कदम जहाँ जहाँ पड़ रहे थे सब उसके रंगों में घुलते जा रहे थे। वो नदी के एक किनारे पड़े पत्थर पर बैठ गयी। पूरी नदी का रंग पीला हो गया, नदी में नीला आसमान भी पीला। वो रंग है, उसके जीवन के कैनवास में हज़ारों रंग रंगोली की तरह सजते हैं। उसे रंगों से बेहद प्रेम है, रंग उसके प्रेम में पागल इतराये फिरते हैं।

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