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रविवार, 12 अप्रैल 2015

खेत नहीं उम्मीदों के आसमान बोये थे
घर के चूल्हे से कुछ राख बचा कर
बच्चों की भूख के निवाले चुरा कर
छप्पर से टपकती ओस ओढ़ कर 
सर्द सुबहों की कातिल बाहें मरोड़ कर
मैंने
खेत नहीं, उम्मीदों के आसमान बोये थे
देह पर उम्र की सिलवटें गोद कर
पसीने की शक्ल में लहू निचोड़ कर
खोखली हड्डियों से पत्थरों को तोड़ कर
ख्वाहिशों को कहीं हाशिये पर छोड़ कर
मैंने
खेत नहीं, भरे पेट के इन्तेजाम बोये थे
बच्चों की अच्छी पढाई देख कर
बिटिया की मेहँदी की रचाई देख कर
पत्नी की बिमारी की पीड देख कर
परिवार की बेहतर भलाई देख कर
मैंने
खेत नहीं, जीवन से भरे सपने बोये थे
बेमौसम मौसम का कहर देख कर
कच्ची फसल की टूटी कमर देख कर
मिटटी से मिलते लहू का मंजर देख कर
उम्मीदों के आसमान का बंजर देख कर
मैंने
खेत नहीं, आंसुओं के समंदर बोये थे
थमती साँसों पर मुआवजे के दाने देख कर
बिलखती दरों पर सफ़ेद पोशाक देख कर
सन्नाटों को चीरती रफ़्तार देख कर
गर्दनों से रस्सियों के निशान देख कर
मैंने
खेत नहीं, मौतों के बीज बोये थे
खेत नहीं उम्मीदों के आसमान बोये थे 

उत्तर भारत में बेमौसम बरसात से चौपट हुयी फसलों से आहत किसान का दर्द 

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