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मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

पापा की कविता !

 पापा बड़े कवि हो रहे हैं 

वो बग़ैर किसी चिंता के 

कविता लिख रहे हैं 

रोज सुबह दोपहर शाम 

दर्जनों कविता लिखते

एक के ऊपर एक कविता

स्टेटस पर लगाते 

नई बनी कविता को 

पुरानी से बदलते हैं 


कविता में पाएं हांसिल 

की बात करते हैं केवल 

उससे मिले सम्मान को 

स्टेटस पर चस्पा करते हैं 

वो हर विषय पर कविता

लिखने का हुनर पा चुके हैं

युद्ध , मृत्यु , जीवन , बचपन

मां, जलवायु , अतीत , इंसानियत

पर कविताएं कुछ देर में

लिख लेते हैं ।


पहले जब पापा रिटायर 

नहीं हुए थे तब वो 

खूब काम करते  

समय रहते मिलते जुलते 

दोस्तों से , घूमते थे 

चौपालों में , बे ठिए में

चूसते गन्ने, ट्यूबवेल के समीप

छप्परों तले चखते बाटी चोखा

और फौज की वर्दी में भी 

वो खूब जंचते 


लिखते थे कविता

पन्नों के टुकड़ों में 

कभी कभी पर्चियों में 

और कभी दिवालों पर 

लिख कर भूल जाया करते थे

तब वो जीते थे 

कभी कभी जिए हुए

पर कविता लिख देते थे 


पापा की कविताएं पढ़

याद हो जाया करती थीं 

खुदबखुद , स्मृति में 

लौट लौट आती थीं फिर

घटनाओं के संदर्भ पर 


दुनियावी बातों से इतर

लिखने का मौन चलता रहा

लंबे अरसे तक शब्दों के 

हेर फेर से आज़ाद रहे पापा

घर बनाया , बच्चे बनाए

बनाया अपना सिंहासन 


जीवन के सुदूर छोर पर 

पापा का लिखना लौटा है 

कुछ एक वर्षों से 

कई हफ्तों, अनगिनत घंटों से 

उन्होंने कविताएं लिखना 

बंद नहीं किया है 

वो सुइयों पर सवार घड़ी की

देखते हैं , वक्त को करीब से

इर्द गिर्द चलती दुनिया को

नसीहतों से भर देना चाहते हैं

उन्हें लगता है जो अब तक

कहा नहीं गया , सुना नहीं गया

कहीं , वहीं वो कहते हैं

धमकियों का पुट लिए 

आगाह करते अनसुनियों पर


छटपटाता पापा का कवि हृदय

बीते समय की कमी

पूरी करता हर क्षण 

कविता रचता है और 

सुना देने 

के लिए व्याकुल रहता है 

एकाग्र चित्त सुनते श्रोता

उन्हें अच्छे लगते हैं !


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