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शुक्रवार, 7 जून 2024

वो जो खिड़की है न !

 


वो जो खिड़की है न 

फ्रेम है तुम्हारी सुबहों का 


बाहर से भीतर झांकती

रोशनी तुम्हारे कदमों को

चूमती हुई तुम्हारी आंखों

में चमक कर खुलती है 


एक कोमल सहज स्पर्श

बदन पर पसर जाता है 

खिड़की पर छापे सा 

बोगेनवेलिया तुम्हे निहारता है


2.

एक खिड़की जागती

अल सुबह मदमस्त झूमती

सिरहाने भोर की दस्तक देती

पसर जाती अलसाई देह पर


दुनिया की तीक्ष्ण , तेज़ 

हवाओं से कुम्हलाए मन को

साधती , सहलाती नेह से

भरती आंखों में नई उम्मीद


खुलती बंद होती 

कमरे की खिड़की 

मन की खिड़की 

से खुलती है 


खिड़की का खुलना

बंद होना दर असल 

मन का होना होता है !


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