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रविवार, 25 मार्च 2018

प्रिय मनीष,
    आप बहुत अच्छा काम कर रहे हो, कमाल का डायरेक्शन है, और विषय वस्तुओं का चुनाव भी। अक्सर कुछ ऐसा दिख जाता है, जिससे दिन बन जाये। कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था, ऐसा काम देखने को मिलेगा। कभी कभी सोचता हूँ, कि हिन्दी कविता, हिन्दी स्टूडियो की शुरुआत किन हालातों में हुई होगी। जिसने एक इन्सान के अन्दर इतनी ऊर्जा दे दी, हिम्मत दे दी। वो रुक नही रहा, थक नही रहा, विचलित नही हो रहा है। वैसे मैं इस सफर में क-से-कविता के माध्यम से आपके साथ मात्र दो सालों से जुड़ा हूँ। उससे पहले का सफर कैसा रहा होगा, केवल अंदाज़ा ही लगा सकता हूँ। मैं वाकई इक्छुक हूँ यह जानने में। इतने सारे लोग, इतनी तरह के लोग, इतने तरह के काम...सब स्थापित होते हुए। क्या कारण है ? इस यात्रा से जुड़ा व्यक्ति अपने आप को झोंक देने की हद तक दीवानों की तरह काम करता है। मुस्कुराते हुए, मैराथन के बैटन की तरह यात्रा में दौड़ने लगता है। दूर दराज, बिना व्यक्तिगत जान पहचान, बिना मिले, सैकड़ों लोग एक जैसा ही सपना देख रहे होते हैं। क्या ही लालच होगा ? साहित्य,कला, प्रेम के सिवा। पर कहीं कुछ दरक रहा है, उसकी आवाज़ यहाँ एक इकाई तक पहुँचती है। आप सब की मेहनत, समय, स्नेह, काम के प्रति लगाव, प्रतिफल हम सब को बांधे रखता है। प्रेरणा देता है। उत्साहित करता है। हिन्दी स्टूडियो, हिन्दी कविता, क से कविता सब एक ही तो हैं...हम ।
क से कविता- लखनऊ

रचनाकार के नाम एक पाठक का ख़त !


ओ मेरे प्रिय रचनाकार,


मेरे भीतर तुम्हारे शब्दों की स्वर लहरियाँ बजती हैं। उनके हाव भाव, उन शब्दों की स्पष्ट आवाज़े गूँजती हैं कानों में मेरे । उन्हें जज़्ब कर के , अगली रचना के इंतज़ार में बैठता हूँ। वो रचनाएं जो मुझसे संवाद करती हैं, मैं उन शब्दों के भीतर की कशिश महसूस कर सकता हूँ। पढ़ी जा चुकी रचना और आने वाली रचना के बीच का समय उन्ही पढ़ी जा चुकी रचना के रंग में रहता है।
         नई रचना अवाक कर देती है नए रंग लाकर । बेहद संतुलन बना के चलना पड़ता है, इन ऊँचें नीचे टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलते वक़्त। न जाने कौन सा हवा का झोंका उड़ा दे उदासियों की परतों को। इतनी उम्मीदें जगती हैं इन शब्दों से, इतनी ऊर्जा मिलती है कि मन कहता है प्रेम से खूबसूरत तो दुनिया की कोई शै, है ही नही। मैं उन पंक्तियों के आखीर को जरूर देखता हूँ, उनमें लिखा होता है "प्रेम में खिलना"। उन पंक्तियों को लेकर मैं भागता हूँ नई नई जगहों पर।
         विस्तार के संकुचन से आहत सभ्यताएं मिलती हैं। जिये के निशान नही मिलते। कोई कुछ भी महसूस नही कर पा रहा है। जिस धरती के गुरुत्वाकर्षण से उनमें भार की अनुभूति जगी होगी, जिस आसमान से उन्हें छत का आभास हुआ होगा, जिस पानी, हवा, प्रकृति के स्पर्श से जीवन के संकेत मिले होंगे...वो सब उनके जीवन में अब नही दिखते। मैं तुम्हारे शब्दों की जैविक खाद डाल देता हूँ उनकी जड़ों में, फिर भागता हूँ अपने ठीये पर । एक नई रचना, एक नया राग, प्रेम में बुझी हुई कहानी, टूटते हुए तारों के रूमान से भरी आकाशगंगा भर देती है मुझे प्रेम के संसार से। मुझे तुम्हारे शब्द मुक्त करते हैं, बंधनों से, दुनियावी झंझावातों से, जमा पुंजियों से, भविष्य के खतरों से।
        "प्रेम में खिलना" का अर्थ क्या सही पढ़ पाया हूँ मैं ? या प्रेम का लिखा जाना अभी बाकी है ?

 एक पाठक

शुक्रवार, 23 मार्च 2018


क्या ये नाटक है ?

भीड़ तमाशा देख रही
चोर तमाशा देख रहे 
फिर भी घण्टी बजती है
लुटने की, लुटवाने की ! 

नाटक है ? क्या ये नाटक है ? 

भोम्पू भों भों भौंक रहे 
सुनने वाले छौंक रहे
भजनदास जी कहते हैं
भजनू, भजना, भजनदास !

नाटक है ? क्या ये नाटक है ?

नाज़ुक नाज़ुक कहते कहते
पंजों में नाखून पहन कर
वो गीत राष्ट्र के गाते हैं
गाते नहीं..... ! गवाते हैं !

नाटक है ? क्या ये नाटक है ?

जन से खाली जन नायक
काली कुर्सी - काला खेल
सफल हुए तो, हरि गंगा
विफल हुए तो जनता फेल

नाटक है ? क्या ये नाटक है ?

घोर निराशा की बदरी में
पानी घट घट बढ़ता जाए
ऊसर की धरती कहती है
मिट ले तू, मैं भी मिट लूँ  !

नाटक है ? क्या ये नाटक है ? 

शनिवार, 17 मार्च 2018



संभालना एक छोर कोई...!

संभालना एक छोर कोई
कोमल हांथों से
लकीरें मिटने तक

मरी हुई लकीरें
हाँथ छुड़ा लेती हैं।

चलना एक राह कोई
आहिस्ता कदमों से
मंजिलें गुम होने तक

फिसलती रेत
तलुओं में चिपक जाती हैं।

रजना रंग में कोई
उम्मीदों के फूलों से
रंग बे-रंग होने तक

रंगों की अपनी
सीमाएं होती हैं।

लिखना भाषा में कोई
पनीले अक्षरों से
सैलाब आने तक

बहुत खारे से अब
आँखें सुलगती हैं।

लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार

शहर में अब एक भी लाश लावारिस नही दिखती। लाश के लावारिस होने की घोषणा के बाद एक शक्श उस लाश का वारिस हो जाना चाहता है। लाश के लावारिस होने की वजहों पर अपना समय बर्बाद किए बगैर, वो लाश को अपने नाम से जोड़ देता है। लावारिस लाश के साथ वारिस के जुड़ते ही, शहर में मसीही गुदगुदी होने लगती है। ऐंठी, सूखी, सड़ रही लाश के इर्द गिर्द आम शहरियों की भीड़ जमने लगती है। भीड़ लाश को उचक उचक के देखती है, और उस शख्स की करुणामयी आंखों में खो जाती है। बेचारगी, मुफ़लिसी,अकेलेपन से ऊब चुकी लाश भी कुछ बेहतर महसूस करती है। उसे आभास होने लगता है, कि अंतिम संस्कार के अभाव में उसे भटकना नही पड़ेगा। वह शक्स भी जानता है, मरने के बाद अंतिम संस्कार कितना जरूरी होता है। वो अंतिम संस्कार के सारे पुण्यों का वारिस हो जाना चाहता है। अख़बार लाल हेडिंग के साथ काली स्याही से लिख देता है, पुण्य कर्म की गाथा। शहर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की हर कहानी को अपने जहन में दर्ज करता रहता है। उसके चर्चे करता है। पर  उसे शायद नही मालूम इस पुण्य कर्म के आभा में न जाने कितने सवाल दब गए हैं। सवाल लावारिस होने के... सवाल वारिस बनने के...सवाल पाप के पुण्य की सराहना के। हर अंतिम संस्कार के बाद सरकार, शहर पाप के खेमें में खड़े होकर उस शख्स के जयकारे लगाते हैं। उन्हें नही मालूम भविष्य में पुण्य कर्म के पहाड़ पर बैठा वो शख्स क्या माँग ले। उन्हें नही मालूम शायद पाप पुण्य की फसलें हर पाँच साल में काटी जाती हैं।  "राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है" नही बोला जाता लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में।

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

ऊभ की दूब
सूखती हरी होती
दूब खर पतवार है
कहीं भी कभी भी
सलीके, समय तो गमलों में खिलते हैं
सूखते नहीं, मर जाते हैं 

शुक्रवार, 9 मार्च 2018


लखनऊ - बनारस का होली मिलन

होली के एक दिन पहले बनारस लखनऊ से मिलने आया ! बनारस बता के नही आया, कि लखनऊ से मिलने जा रहा हूँ। बताता तो शायद बनारस वहीं छूट जाता, और लखनऊ से मिलने शहर नही आ पाता। लखनऊ पहले अपनी अना में रहा, जैसे ही बनारस से मिला वो अना अमाँ में बदल गयी। बनारस और लखनऊ की मुलाकात का वक़्त और जगह मुकर्रर होने के बावजूद भी, बड़ा प्रश्न था...कि इस मुलाकात का कौन सा हिस्सा तमाशे से उकताए हुए दोनों शहरों को सुकून दे पाएगा।
    फन मॉल की रंगीनी, मिस्टर ब्राउन के दिल शेप वाली काफी को नज़रअंदाज़ करते हुए दोनों गोमती किनारे बैठ जाते हैं उस काली बदबू देती मृतप्राय गोमती किनारे । स्कूली बच्चे अबीर गुलाल का खेल खेल रहे थे। लखनऊ गहरी सोच में डूबते हुए दास्तान की गलियों में बनारस को ले जा रहा था । कभी शहर के बीचों बीच खिलखिलाती नदी, पीपे वाला हिलता डुलता पुल, लखनऊ हज़रत गंज से देर रात पैदल आता, पीपे वाले पुल पर खड़ा होकर उस नदी की उमंग को महसूस करता। 15 सालों में लखनऊ ने गोमती को मरते हुए देखा है। लंदन की थेम्स नदी की तर्ज़ पर बनने वाले गोमती रिवर फ्रंट की आहट से गोमती कभी मुस्कुराई होगी। लखनऊ की गोद में गोमती की किलकारियां भरने की उम्मीद जगी होगी। पर गोमती मर चुकी है कब की। गोमती का शव काला पड़ गया था। बनारस डबडबाई आंखों से लखनऊ के कंधे पर हाँथ रख सांत्वना देता है, ढांढस के पुल बाँधता है। अपने कोख में पल रही गंगा के कुछ दुख भरे किस्से सुनाता है।
        बनारस लखनऊ को कुछ और महसूस करना चाहता था। दोनों निकल पड़ते हैं पैदल एक अदत अच्छी चाय की तलाश में। 5 कालिदास मार्ग, माल एवेन्यू, हज़रत गंज, लालबाग...! शाम-ए-अवध में शायद चाय का चलन अब रहा ही नही हो, ऐसा लगता रहा। बनारस को उसकी संकरी गलियों में मिलने वाली 5 रुपये वाली बढ़िया चाय का लोभ छोड़ना ही पड़ा। बनारस को पुराने लखनऊ की तलब थी। बेगम हज़रत महल पार्क टैक्सी स्टैंड पर चौक चौक की आवाज़ उसे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। बनारस टैक्सी में ड्राइवर वाली सीट के पास बैठ के दाएं बाएं लखनऊ को देखना चाह रहा था। लखनऊ पीछे वाली सीट पर बैठता है। वो अब नए लखनऊ में रहता है, जहाँ से पुराने लखनऊ की दूरी बहुत ज़्यादा लगती है। पीछे वाली सीट पर एक परिवार लखनवी तलफ़्फ़ुज़ में किसी ब्याह के दस्तरख़्वान की बातें करता है। लखनऊ उनकी गोद में बैठी नन्ही बच्ची की आंखों में खो जाता है।
         200 रुपये में चिकेन के कुर्ते, 400 रुपये की जैकेट, 100 रुपये में दो शर्ट और कई तरह के सस्ते माल की आवाजों से चौक गुलज़ार था। सड़क किनारे दोनों पैदल पटरियां बेचनेवालों ख़रीदारों से भरी। बड़े बड़े चाय की केतलियों में मसाला कश्मीरी चाय, छोटे छोटे खाने पीने की दुकानों में शीरमाल, ख़मीरी, क़बाब, कलेजी, वेज क़बाब, हलवा पराठा, मलाई मक्खन, गर्म दूध ... ! बाज़ार में भीड़ थी, शोर था, सड़के जाम होती चलती। जब नए लखनऊ का दिन मानसिक शारीरिक थकन से परेशान देर शाम घर की तरफ रुख करता है। तब पुराना लखनऊ सड़कों पर निकल आता है।
          लखनऊ बनारस के हाँथ में हाँथ डाले लोगों से उन गलियों का पता पूछता है, जहाँ वो अपनी शामें गुजरता था। अगला पड़ाव अकबरी गेट है। चहकते चौक चौराहों से अंधेरी गलियों को पार करना लखनऊ की रवायत है। अकबरी गेट पास था। टुंडे के क़बाब, रहीम की निहारी कुलचा, मुबीन की बिरयानी...! जैसे खाना पीना, खिलाना रात की इबादत हो। लखनऊ और बनारस दोनों टाइम मशीन में बैठे सदियों की यात्रा में थे। यात्रा के हर पड़ाव में सलाहियत थी, सलीका था, साथ लेकर बढ़ने का हौसला था। भेद नही मिला किसी जगह। हिन्दू - मुसलमान, हिन्दी-उर्दू, मंदिर - मस्जिद, बड़े का गोश्त- मटन, साइकिल- कार..सब अपने अपने रास्ते मिलते झूलते टकराते। आधी रात बीत चुकी थी उन गलियों में। लखनऊ बनारस को इन्ही हल्के फुल्के लम्हों के साथ विदा करना चाहता था। जिससे बनारस में लखनऊ से फिर मिलने की तलब बनी रहे। दोनों टैक्सी में बैठ चारबाग की राह लेते हैं। रास्ते में नए पुराने समय के इश्तिहार नही लगे थे, अलग अलग नाम, मज़हब, फितरत के लोग भी नही थे। खाली सड़क पर टैक्सी तेज़ चल पा रही थी, फिर भी नए पुराने लखनऊ की दूरी दशकों की लगी। बनारस इस नए पुराने का लखनऊ संस्करण लेकर विदा लेता है। लखनऊ यादगार संग साथ और दशकों की यात्रा को एक दिन में जी कर अपने नए पन में गायब हो जाता है।

शनिवार, 3 मार्च 2018


बहुत बड़े बड़े किले हैं ऊँचे ऊँचे,
शब्दों की तेज आँधियाँ कुछ नही कर पातीं,
किले की कीलें जंग खा गई हैं,
पत्थर सख्त होने का ढोंग रचता है,
दरवाजों की लकड़ियाँ उम्र की फिक्र में
उम्र दराज़ हो रहीं हैं।
इन किलों के मालिकों के चेहरों पर
अपने टिके रहने की गिल्ट नहीं होती ?
या इन शब्दों के बुने आड़े तिरछे जालों में कोई दम नहीं ?





मैं लौट आता हूं अक्सर ...

लौट आता हूं मैं अक्सर  उन जगहों से लौटकर सफलता जहां कदम चूमती है दम भरकर  शून्य से थोड़ा आगे जहां से पतन हावी होने लगता है मन पर दौड़ता हूं ...