कोहनियों में दर्द फूटता है
घुटनों के नीचे माँस जम जाता हैउंगलिया थक जाती हैं
काँधे जकड़ जाते हैं
दो मुँही हाँथ की लकीरें
रात को खत्म हो जाती हैं
मैं रोज बेदम
इक राह जोतता हूँ
हिज़्र की ,
कुफ़्र से
दो चार होता हूँ
धिक्कारता खुद को
शिकायतें ओढ़ता
तमाम तरह की न सुनते
स्नेह तपकता है
मैं खुद से
भागता हूँ दिन रात
तलाश में एक अदत
छाँव !
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