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गुरुवार, 1 अगस्त 2019

दूरी !

हम मिलते हैं रोज़
सैकड़ों किलोमीटर की थकान
मनों भार लेकर
भिड़ जाते हैं आमने सामने

भिड़ने के बाद
दो दूनी चार
बटे, हँसिल दुनिया
बच जाती है
रोज़
सुबह दोपहर शाम
दूरी कोई दूरी होती है भला !

मैं चुप होना चाहता हूँ .

आवाज़ देता हूँ  तो कोई आवाज़ आती नहीं  पलट कर मेरे पास  आवाज़ ढूंढती  है मुझे  और मेरे कानों को  मैं छिपता फिरता  भागता जा पहुचता हूँ  कोलाहल म...