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सोमवार, 24 नवंबर 2025

कौन हो तुम ....



कौन हो तुम 

जो समय की खिड़की से

झांक कर ओझल हो जाती हो 

तुम्हारे जाने के बाद 

तुम्हारे ताज़ा निशान 

भीनी खुशबू और 

गुम हो जाने वाला पता 

महसूस तो होता है 

पर तुम्हारा सामना करने की

राह नहीं मिलती 

तुम्हारे होने न होने के बीच

का फासला हमेशा धुंधला

ही क्यों होता है ?


कौन हो तुम 

जो ठहरना भूल गई हो 

हवा से बातें करतीं 

पंख फड़फड़ाती उड़ती

उन्मुक्त आकाश में 

पहाड़ी सर्द हवाओं पर सवार 

ऊंघते जीवन को 


झंकृत कर जाती हो ! 



रविवार, 2 नवंबर 2025

राह कटे संताप से !

फिर झुंझलाकर मैने पूछा

अपनी खाली जेब से 

क्या मौज कटेगी जीवन की

झूठ और फरेब से 

जेब ने बोला चुप कर चुरूए

भला हुआ कब ऐब से 


फिर खिसिया कर मैने पूछा

अपने भारी पेट से 

क्या भार घटेगा पेट का

रुखी सूखी खाए के 

पेट ने बोला चुप कर लुबरा 

भार घटे ना अघाये से


फिर तन्ना कर मैने पूछा

अपने आत्म विवेक से 

क्या राह कटेगी जीवन की

संघर्षों की थाप से 

विवेक ने बोला चुप कर पगले

राह कटे संताप से !



मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

प्रिय पहाड़ , शायद तुम्हे छोड़ने आऊँ !

प्रिय पहाड़ ! 

तुम आ ही गए , यहाँ . मैदान में , खेतों में . तुम्हारी खुनकी करीब एक हफ्ते पहले महसूस हुयी थी . सुबह अपने खेतों की तरफ गया . तो देखा धान की पतवारों पर ओस की बूंदें झूम रही थी . मैंने ऊँगली लगाई और वो ओस मेरे ऊँगली के पोर पर उतर आई . खेतों में जलाई जाने वाली पराली आसमान के नीचे जमने लगी . दादा की झोपडी हलकी धुंध में दिख नहीं रही थी . दद्दू के ट्यूब वेल से पानी के साथ हलकी भाप सी दिखने लगी . दिन तेजी से ढलने लगे . शामें शांत होने लगीं . सामने वाले बाबा की झोपडी से पत्तों के जलने की चरचराहट सुनाई देती है साफ साफ़ . 
    बीच में दो दिन बड़ी गर्मी रही . लगा कि इस बार भी दिसंबर में ही आओगे . बस अपना तौर  दिखा के चले गए . गर्मी , उमस , काले बादल , 24 घन्टे  रिमझिम झड़ी के बाद तुम तो बौरा गए ! स्वेटर , कम्बल और लिहाफ निकालने तक का समय नहीं दिया . दिन भर हम सब ठिठुरते रहे . लोहे की बाल्टी में रखा रात का पानी जैसे बर्फ हो गया हो . नहाने के लिए एक मग्घा पानी काफी लगा . 
    हमारे कर्मचारी , आड़ ढूँढने लगे . अभी कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुझसे पूछा था . कैसा रहेगा मौसम अगला . मैंने कहा था पहाड़ आयेंगे ऊँचें ऊँचें . शायद हिमालय भी . अबकी ठण्ड रिकॉर्ड तोड़ेगी . बारिश के पहाड़ गिरे इस बारिश . तो ठंढ का भी पहाड़ आएगा यहाँ चल के . 
    मैं कई सालों से पहाड़ नहीं जा पाया . कई चट्टानें दरकिन हैं , कई बादल फटे हैं . फिर भी लाखों की संख्या में लोग पागलों की तरह तुम्हारी ओर खिचे चले आते हैं . सूना है उनके स्वागत में तुम्हारे कुबढ़ पर पांच सितारा व्यवस्थाएं रहती हैं . 
    खैर छोडो , बाकी बातें फिर कभी ....
तुम आये शीत लहर के रूप में . पीठ पर जली चमड़ी की पपड़ी अब उकत जायेगी . बिजली का बोझ कुछ कम हो जाएगा . बदन में चुस्ती फुर्ती बनी रहेगी . तुम्हे तो याद होगा कितनी बार मैंने तुम्हारे कन्धों पर पैदल यात्राएँ की हैं . तुम तो हवा में उड़ कर आये हो . जब से मैंने पहाड़ जाना छोड़ दिया है . वहां से कोई न्योता भी नहीं आता . उतरती सर्दी हो सकता है मैंने तुम्हे छोड़ने आऊँ ! 


बोलो सब नेतन की जय !

पास में न है फूटी कौड़ी 

मांगे झारा वोट 

बातन के बतासा फोड़े 

ढीली करें लंगोट 

राजनीति का चढ़ा के पारा

मजा करें विस्फोट


नेता जी जब सुर्रा छोड़ें

पांव पड़े सब छोट 

बड़े बडन संग फोटू मढ़ावें

पर्दा में सब खोट 

बाप मतारी , बच्चा घरैतिन

पीसें घरमा होंठ


बदली हवा राजनीति की

तब नेता बनिगे बोट 

बना सिंहासन बढ़ा कारवां

परि गई लूट घसोट 

चर चर पहिया करें सवारी 

भक्तन पर सब चोट

नेता पहुंचे राजमहल मा

जनता ढूंढे रोट 


नेता नहीं, अब ब्रम्ह देव हैं

स्वीकार करें सब नोट

शादी बियाह औ काम काज

बे काजन को कोट

गुरगन संग दरबार चलावें 

फरियादिन की खोट

देख दायरा बढ़त कलेजा

दांव परे हर गोट

 

लाल गुलाबी गाल बजावें

खद्दर पहिने मोट 

जिन्दन पर हाय हाय 

मुर्दन पर सोंट 

पांच साल की करनी धरनी 

पल मां जाएं घोंट

सेल्फी रील और मीडिया

वायरल होय लहालोट ...


बोलो सब नेतन की जय !

तुम कह दो तो मन मीत बनूँ !



मन पहले भी था पार प्रिये 

मन आज भी है चीत्कार प्रिये 

तुम कह दो तो संसार तजूं 

तुम कह दो तो मझधार चुनूं 


मन आज का न जंजाल प्रिये

मन भीतर बाहर सवाल  प्रिये 

तुम कह दो तो रस मोह पियूं 

तुम कह दो तो बस टोह धरुं 


मन धीर तुम्हारे धीश प्रिये 

मन व्याकुल चंचल शीश प्रिये 

तुम कह दो तो परवान चढूं 

तुम कह दो तो पतवार बनूँ 


मन बना बनाया राग प्रिये 

मन सावन ,भादंव, फाग प्रिये 

तुम कह दो तो कोई गीत बनूँ 

तुम कह दो तो मन मीत बनूँ ! 


मन पहले भी था पार प्रिये 

मन आज भी है चीत्कार प्रिये ! 

कौन हो तुम ....

कौन हो तुम  जो समय की खिड़की से झांक कर ओझल हो जाती हो  तुम्हारे जाने के बाद  तुम्हारे ताज़ा निशान  भीनी खुशबू और  गुम हो जाने वाला पता  महस...