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रविवार, 23 मार्च 2025

मैं लौट आता हूं अक्सर ...




लौट आता हूं मैं अक्सर 

उन जगहों से लौटकर

सफलता जहां कदम चूमती

है दम भरकर 


शून्य से थोड़ा आगे

जहां से पतन हावी

होने लगता है मन पर

दौड़ता हूं सफलता की ओर

फिनिशिंग प्वाइंट के ठीक पहले

ठिठककर रोक लेता हूं 

खुद को वहां भी 

ठहरकर , जाने देता हूं

जरूरतमंदों को पहले


नौकरी की लाइनों से

अस्पतालों की ओ पी डी से

राशन की दुकानों से

जनप्रतिनिधियों के दरबार से

प्रेमिकाओं के प्यार से 

मंदिरों में कतार से

लौटता हूं अक्सर 

जैसे लौटता हूं

शराब की दुकानों से 

बिना कुछ लिए


मालूम है मुझे

नहीं लौट पाऊंगा कभी

मृत्यु के द्वार से 

प्रस्थान बिंदु के पहले 

अनगिनत बार 

लौटना चाहता हूं 

लौट कर हर बार 

कुछ नया पाता हूं 

उस जगह 


रिक्त स्थान होते हैं 

सिर्फ भरने के लिए 

खुद को भरने से पहले

लौट आता हूं मैं अक्सर

लौटना मुझे अच्छा लगता है ।

मंगलवार, 18 मार्च 2025

किस्सा प्रेम का ...



 ठहर कर

एक पल

मादक वसंत

झरने सा 

झर झर 

बह गया

लहर कर

गाल ऊपर

बाल काले

मोहक छवि

को गढ़ गया

दुबक कर

आंख का

काजल

सुनहरे

मोतियों

में ढल गया

गुलाबी

नर्म होंठों पर

न जाने

कौन सा 

किस्सा

अधूरा रह गया


रविवार, 16 मार्च 2025

एअर फोर्स की होली


याद बहुत आती है मुझको

एयर फोर्स की अपनी होली

धूम मचाने जहां निकलती

 बिंदास बैचलर्स की टोली

याद बहुत आती है मुझको

एयर फोर्स की अपनी होली


मिश्रा भाभी का मीठी गुजिया से

मुंह मीठा करवाना

दही बड़े जो बड़े बड़े थे

गुप्ता जी के घर पर

हक जमाकर प्लेट उठाकर

झट से चट कर जाना

यादव सर का दुध का शर्बत

कहकर भांग पिलाना

इसी खुमारी में रेड्डी का

सी ओ संग भंगडा पाना

राव गारू की इडली चटनी

चौबे का लिट्टी चोखा

मलिक और राठी के घर पर

हर बार मिला जो धोखा

दिखा पकौड़े, डंडे कोड़े

मुहब्बत भरे खिलाना

पिल्लै सर का लिटिल लिटिल

कहकर हमें पिलाना

अहमद और जैकब का हैप्पी

होली कहकर गले लगाना

गुलाल लगाकर रफीक का

मेरे बदले ड्यूटी जाना

भूला कहां मैं शेखावत का

वो रजपूती बाणा

 बिना सुर के सांझ ढले तक

उसका राजस्थानी गाना


लगा एक कैंप नहीं

एक परिवार हैं हम

संग संग जीने का 

आधार हैं हम

एक इकाई, पड़ी दिखाई

भले संस्कृति रही 

सबकी अलग अलग

अलग अलग रही सबकी बोली

याद बहुत आती है मुझको

एयर फोर्स की अपनी होली

धूम मचाने जहां निकलती

बिंदास बैचलर्स की टोली.


वायु सेना की यादें,,,,,,,



प्रताप सिंह 

रि. वायु सैनिक 

भारतीय वायु सेना 

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

मैं गिद्ध हो चला हूं ...

 


पिछले 3 महीने में 4 प्रियजनों की आकस्मिक मृत्यु देख चुका हूं । आज जब किसी एक और प्रियजन के अंतिम संस्कार में मेहदी घाट पहुंचा । तो सन्न रह गया । सैकड़ों की संख्या में छोटे छोटे टीले दिखे । टीले 4 फुट से 6 फुट के । उनपर भगवा अथवा सफेद कपड़े ढके हुए । कुछ के उड़ के न जाने कहां गए । 

एक तरफ गंगा की धार को छूते आधा दर्जन अंतिम संस्कार की सराओं के झुंड थे । दूसरी तरफ कुछ फर्लांग गंगा की रेती की सफेद चादर पर सैकड़ों टीले , आकाश को निहार रहे थे । 

धूं धूं होते अपने प्रियजन की पीड़ा को पार करते इन टीलों के पास गया । और रिवर बेड पर मात्र दो फुट गहरे नीचे 3 फुट ऊंचे नए टीलों को बनते देखा । पूछा ! दफनाना , कब्र जैसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं है हमारे धर्म में । फिर ऐसा क्यों । 

सफाई कर्मचारी से लेकर कुछ के परिजनों ने बताया । कि समाधि तब दी जाती है । जब कोई व्यक्ति अविवाहित मृत्यु को प्राप्त हुआ हो । हे ईश्वर .... यानी कि जो टीले हैं , वो बच्चों के हैं , किशोरों के हैं और सिर्फ अविवाहितों के हैं । मेरा शरीर उच्च ताप से जलने लगा । हृदय गति रुकने सी लगी । 

मैं उनकी समाधि के अस्तित्व में होने से अधिक उनकी संख्या से विचलित हो रहा था । मैं अपने प्रियजन की अंत्येष्टि क्रिया को बीच में छोड़ के वहां से निकल आया । 

मानसपटल पर छोटे छोटे टीले अबोध कोमल और ऊर्जा से भरे चेहरों की शक्ल लेने लगे जो मेरे आस पास हैं ।

अखबारों के पन्नों में , सड़कों पर , अस्पतालों में , घाटों पर  , विद्युत शवदाह गृहों पर मृत्यु मृत्यु और मृत्यु ! 

क्या कोई सांख्यिकीय बढ़ती मृत्यु दर पर नजर बनाए हुए या नहीं ! जन्म दर के सापेक्ष मृत्यु दर का संतुलन कहीं बिगड़ तो नहीं रहा ? 

ये मृत्यु की आकाश गंगा पंगु एवं लाचार स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण है या किसी प्रकार की अराजकता मौन साधे जन समूह को लील रही है ! मुझे नहीं पता । किसी को पता है या नहीं , ये भी नहीं मालूम । 

आए दिन अपने आप पास नए अस्पतालों को पनपते देखता हूं । उनके बिल बोर्ड पर जुखाम से लेकर कैंसर तक के इलाज को शर्तिया ठीक करने का दावा गौर से पढ़ता हूं । स्वास्थ्य सेवाओं में आधुनिक मशीनों और जीवन रक्षक दवाओं से सुसज्जित सरकारी प्राथमिक , सामूहिक , मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों के किस्से सुनता हूं । बड़े बड़े ब्रांड वाले अस्पतालों के लंबे चौड़े विज्ञापनों को गौर से देखता हूं । 

फिर भी इन सब दावों से इतर साधारण सी बीमारी को असाध्य होता देखता हूं । बड़ी बीमारियों और आकस्मिक दुर्घटनाओं में लाखों रुपए खर्च होने के किस्से भी सुनता हूं । इनक्यूबेटर से वेंटिलेटर तक के सफर को केवल तीमारदार ही समझ सकता है । 

खैर ! अपने प्रियजनों , निकटवर्ती और मेरे जैसे शक्ल और सूरत वाले लोगों की अकाल मृत्यु को देखते देखते मुझे लगता है , मैं गिद्ध हो चला हूं । 

 ये सब फर्जी के सवाल हैं । इन सवालों के उठने की प्रक्रिया को निश्चक्रिय करने के लिए एक पोस्ट लिख रहा हूं । 

मुझे गर्व है । मैं एक उत्सव प्रधान देश का नागरिक हूं । जहां हर फसल के बाद , हर मौसम में एक उत्सव है । उत्सव के बाद उत्सव है।  

अंजान मृत देह को प्रणाम कर आगे की ओर बढ़ जाने और जान पहचान की मृत देह की अंत्येष्टि में  शामिल होने की आदत विकसित करनी होगी । 


तस्वीर आज दोपहर दिनांक 28/2/2025 की हैं ।

सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

मुट्ठी भर तारे ...



तुम जहां कहीं भी

हो आसमान में

लौट सके तो

लौटना

तोड़ लाना तारे

मुट्ठी भर कुछ

मेरे लिए


रोज रात आसमान में

नजरें गड़ाए 

ढूंढता हूं तुमको

अनगिनत तारों और

एक चंद्रमा के अलावा

कुछ नहीं देख पाता


यहां को छोड़ गए लोग

बताए जाते हैं 

जाते हैं वहां आसमान में !

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

जाती हुई मां ...



प्रिय मां ,

 मां तीसरा दिन है आज तुम्हे गए हुए । तीन दिन से तुम्हारी आत्मा को शांति देने के लिए न जाने कितने प्रयत्न कर लिए हमने । पर तुम्हारी याद अचानक से सहमा देती है । तुम्हारे बच्चों के आंखों में आंसू कभी भी छलक जाते हैं । फफक फफक कर पापा रो पड़ते हैं ।

तुम्हारी , घर के रोम रोम में हलचल रहती है । एक तुम्ही तो नहीं हो घर में । दीदी हैं , भईया हैं , पापा हैं और जीजा जी , चाचा जी ताऊ जी । सब तो हैं । जैसे सब मिले थे कुछ साल पहले बिटिया की शादी में।  तुम नहीं हो बस । बाकी सब हैं न । ऊंची इमारत में तुम्हारा घर । कितनी लंबी चढ़ाई को दर्शाता है । तुम्हारे न रहने के बाद तुम्हे पता है मां ! कितने लोग तुम्हे देखने आए ? तुम्हारी बातें कर कर के रोते हैं । 

ऊंची इमारत में तुम्हारे छोटे से घर की साफ सफाई , रख रखाई देखते ही बनती है । तुम जहां जहां रह कर आईं । तुमने अपनी साफ सफाई से सबको चौंकाया है । पूजा पाठ , शादी विवाह , कर्म कांड , लेन देन व्यवहार । सब तुम्हारा चौकस । तुम किसी का उधार नहीं रखती । तुम्हारी रोजमर्रा की चिंता में तुम्हारे बच्चों की तरक्की की दुवाएं होती थी । तुम्हारा क्रिकेट प्रेम , तुम्हारा देश विदेश की खबरों पर नजर और उनके प्रति चिंताएं।  तुम्हारी सोसायटी के लोगों के दुख सुख में शरीक होना या फिर मेहमानों और मान्यों की खातिरदारी में कोई कोर कसर । 

तुम्हारे सफेद चेहरे पर चटख रंग तुम्हारे सौंदर्य को और निखारते थे । मातृत्व के वात्सल्य में तुम्हारी आंखों से छलक आते आंसू हम सब पर भारी पड़ती है । 

तुम सदैव घर की रीढ़ की हड्डी रही।  दीदी की शादी , भईया की शादी , दीदी के बच्चे , भैय्या के बच्चे और फिर मेरी भी । तुम्हारी झोली में कुछ बचे न बचे । जरूरत से पहले दे देती । हमारे सभी फैसलों पर सही गलत की मोहर लगाने से पहले तुमने हमारे करियर के बारे में सोचा । पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं आसानी से , कहां कुछ बड़ा सोच सकती हैं भला । 

ये तुम्हारी जीवटता ही है । जो हम सबको संबल देती है । तुम्हारे किस्से आज पूरे घर में बिखरे पड़े हैं । बस तुम नहीं हो ! हो सकता था तुम्हे इतनी तारीफ बर्दाश्त नहीं होती । बाद बिटिया , भईया , दीदी , भाई साहब तुम्हारे जीवन में कोई और संबोधन नहीं सुना तुम्हारे मुंह से । 

बहुत पहले से शायद तुम्हारे दिल और दिमाग में कभी यह बात नहीं रही होगी । कि तुम्हारे बच्चे ऊंचाइयों को छुएंगे । या तुम्हारी इच्छाशक्ति रही होगी । उन्हें उस काबिल बनाना । तुम्हारी देह के न रहने की खबर देने में सबको खासा तकलीफ हो रही थी । 

पर खबर कहां रुकती है । जैसे तुम नहीं रुकती थी कभी , न थकती थीं । सुदूर देश से तुम्हारी लाडली खबर पाते ही दौड़ पड़ी वापस । तुम्हारा बेटा जंगलों से लौट आया बीच रास्ते से । तुम्हारी बेटी पहाड़ों को छोड़ चली आई तुम्हारे पास । 

24 घंटों में तुम्हारे चाहने वाले तुम्हारे अंतिम दर्शन को व्याकुल हो उठे । सभी बाधाओं को धता बता के तुम्हारे पास सब आ बैठे । पर तुम अपने शरीर को छोड़ उड़ चली जहां तुम वर्षों से जाना चाहती थीं । 

आज चौथा दिन है तुम्हे गए हुए । तुम्हारे कर्म कांड की प्रक्रिया लगातार चल रही है । अंत्येष्टि क्रिया , अस्थि विसर्जन , शुद्धिकरण , हवन - ब्रह्म भोज , पिंड दान सब हो चुके हैं । आज चौथे दिन घर के चूल्हे में हल्दी पड़ी है । कल भी हवन , सामूहिक भोजन होगा । संभतः परसों से सब अपने अपने घरौंदों को वापस जाने लगेंगे । इस बार तुम सबसे ज्यादा जाओगी सबके साथ । 

तुम्हारी याद और तुम्हारी मीठी वाणी हम सबको उदास करती रहेगी । 

मैने तुम्हारे साथ कम , मगर क्वालिटी टाइम गुजारा है । मुझे तुम्हारे रहते तुम से केवल एक ही शिकायत थी । तुम्हारा धर्म और आस्था में डूबे रहना । शायद यही बात तुम्हारे जीवन के एकांत को तृप्त करती थी । उस ब्राह्मण की हर बात का अक्षरशः पालन करती थी।  जो तुम्हे हर संभावनाओं के पहले कोई न कोई धार्मिक अनुष्ठान करने को प्रेरित करता था।  

तुम्हे पता है ? जब से तुम गई हो ! मैं चाहता हूं तुम्हारी हंसते हुए चेहरे को जिऊं। वो सब काम कर के जिनसे तुम प्रसन्न हुआ करती थीं। मगर ऐसा संभव कहां । तुम्हारे पथ प्रदर्शक ब्राह्मण की एक एक बात का अक्षरशः पालन हम सभी कर रहे हैं । चार दिन से घर के मंदिर के कपाट बंद हैं । जहां तुम सुबह शाम घंटों गुजार दिया करती थीं।  बालकनी में रखे तुलसी , केले के पौधे में जल नहीं दिया गया । तुम्हारी खींची हुई तस्वीर के प्रिंट को मैं चार दिन से देखना चाहता हूं । पर वो अखबार में लिपटी हुई कल का इंतजार कर रही है । 

कल होगा । तुम्हारी तस्वीर रखी जाएगी किसी कुर्सी या मेज पर । फूल माला की न्योछावर होगी । अफसोस , दुख , संताप प्रकट होगा । भोज होगा । हवन होगा । हम सब में , जिसने जिसने तुम्हारे मृत शरीर को छुआ था या देखा था ।  वो सब पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाएंगे । घर फिर से शुद्ध हो जाएगा । और मंदिर के कपाट खुल जाएंगे । और तुम ?


तुम्हारा ...



मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

पापा की कविता !

 पापा बड़े कवि हो रहे हैं 

वो बग़ैर किसी चिंता के 

कविता लिख रहे हैं 

रोज सुबह दोपहर शाम 

दर्जनों कविता लिखते

एक के ऊपर एक कविता

स्टेटस पर लगाते 

नई बनी कविता को 

पुरानी से बदलते हैं 


कविता में पाएं हांसिल 

की बात करते हैं केवल 

उससे मिले सम्मान को 

स्टेटस पर चस्पा करते हैं 

वो हर विषय पर कविता

लिखने का हुनर पा चुके हैं

युद्ध , मृत्यु , जीवन , बचपन

मां, जलवायु , अतीत , इंसानियत

पर कविताएं कुछ देर में

लिख लेते हैं ।


पहले जब पापा रिटायर 

नहीं हुए थे तब वो 

खूब काम करते  

समय रहते मिलते जुलते 

दोस्तों से , घूमते थे 

चौपालों में , बे ठिए में

चूसते गन्ने, ट्यूबवेल के समीप

छप्परों तले चखते बाटी चोखा

और फौज की वर्दी में भी 

वो खूब जंचते 


लिखते थे कविता

पन्नों के टुकड़ों में 

कभी कभी पर्चियों में 

और कभी दिवालों पर 

लिख कर भूल जाया करते थे

तब वो जीते थे 

कभी कभी जिए हुए

पर कविता लिख देते थे 


पापा की कविताएं पढ़

याद हो जाया करती थीं 

खुदबखुद , स्मृति में 

लौट लौट आती थीं फिर

घटनाओं के संदर्भ पर 


दुनियावी बातों से इतर

लिखने का मौन चलता रहा

लंबे अरसे तक शब्दों के 

हेर फेर से आज़ाद रहे पापा

घर बनाया , बच्चे बनाए

बनाया अपना सिंहासन 


जीवन के सुदूर छोर पर 

पापा का लिखना लौटा है 

कुछ एक वर्षों से 

कई हफ्तों, अनगिनत घंटों से 

उन्होंने कविताएं लिखना 

बंद नहीं किया है 

वो सुइयों पर सवार घड़ी की

देखते हैं , वक्त को करीब से

इर्द गिर्द चलती दुनिया को

नसीहतों से भर देना चाहते हैं

उन्हें लगता है जो अब तक

कहा नहीं गया , सुना नहीं गया

कहीं , वहीं वो कहते हैं

धमकियों का पुट लिए 

आगाह करते अनसुनियों पर


छटपटाता पापा का कवि हृदय

बीते समय की कमी

पूरी करता हर क्षण 

कविता रचता है और 

सुना देने 

के लिए व्याकुल रहता है 

एकाग्र चित्त सुनते श्रोता

उन्हें अच्छे लगते हैं !


गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

कलम चोर !

एक बड़ी संस्था के 

ऑफिस टेबल के नीचे

ठीक बीचों बीच 

एक पेन तीन दिन पड़ा रहा 

ऑफिस में आने वाले

अधिकारी , कर्मचारियों

की रीढ़ की हड्डी की लोच 

खत्म हो गई होगी शायद

चौथे दिन सफाई वाली

आंटी भी पेन वाले 

हिस्से को छोड़ 

पूरे ऑफिस में 

झाड़ू पोछा कर देती 

ऑफिस में चाय वाले

छोटू की नज़र 

रोज़ उस पेन पर पड़ती

एक दिन छोटू ने 

मौका देख पेन जेब 

में रखा और चला गया 

दूसरे दिन 

पेन के गायब होने की

शिकायत एक दूसरे से 

करते नज़र आए कर्मचारी , अधिकारी

सी सी टी वी में

पेन को उठाते हुए 

छोटू को देख 

सब भड़के 

छोटू को धमकी 

हिदायतों के साथ 

उसकी चाय पर 

प्रतिबंध लगाया गया 

और उससे वो पेन

वापस टेबल के ऊपर

रखवा लिया गया ।

बुधवार, 13 नवंबर 2024

बड़ी अम्मा !

हर सांझ छुट्टी की 

गलियारे में कहीं 

भूसौरी के पास 

दूध दूहती अम्मा 

कहती "ला उरे 

ग्लास लइया अपनी 


ग्लास में झाग वाला दूध

दूध वाली मूंछें लिए

पूरे आंगन में नाचता 

अम्मा से शाम की 

कच्चोंनिया का भी

वादा कर लेता


अम्मा दूध घी 

को पहचानती

और 10 बच्चों में 

मुझे सबसे ज्यादा


आज अम्मा कई दिनों से

वेंटीलेटर पर है 

बेसुध , हांथ से अनजाने

निकालती अनगिनत नलियां 

अपने शरीर से 

मैं घर पर अम्मा के लिए

कई दिनों से दूध से 

दही , दही से मठ्ठा 

और मट्ठे से नयनू 

निकालने की कोशिश में 

परेशान हूं 


अम्मा को अपने हांथ का

बिलोने वाला घी

चखाना चाहता हूं

थक कर चूर बैठता हूं

घर में , अम्मा के कमरे में


हिम्मत से खाली

मैं कुछ नहीं कर सकता

आई सी यू में डॉक्टर

के अलावा कोई कुछ 

नहीं कर सकता 


खबर आती है 

अम्मा ने कई दिनों से 

आंख नहीं खोली है 

मुंह से बोल नहीं फूटते

अम्मा के दस बच्चों में

से 9 हैं उसके आस पास 

मैं दूर अम्मा की नकल करता 

प्रार्थना करता 

अम्मा के लौट आने का 

ग्लास हांथ में लिए

खाली ! 


रविवार, 20 अक्टूबर 2024

AI

 

इन दिनों भागता फिरता हूं

खुद से , मोबाइल से 

और अपनों से 

सब काटने दौड़ते हैं 


दौड़ता हूं मैं भी 

एकांत ढूंढने 

काट खाता हूं 

जो भी ऊंची आवाज में 

कहता है कोई काम 

और भूलता है बदले में

चुप देना 


समझ लिया जाना चाहिए 

खुद ब खुद 

भाव भंगिमाओं से और 

चाल चलन से मेरे


क्या हम भूल गए हैं 

इंसानी नब्ज़ को 

रात की थाली में 

परोसे हुए तारे 

पोखर का किनारा 

हरा भरा उपवन , मन 


और बैठ के साथ 

कुछ वार्तालाप, आदान प्रदान 

विचारों का भी 


भागते भागते लिखने का प्रयास

भी होता है टूटने के बाद 

कुछ दर्ज कर लेना 

जैसे इतिहास लिखा जा रहा हो 

नीरव अनुभवों का 

हार को जीत में दर्ज कर लेना

विजय नहीं है 


नया शगल आया है 

जीवन में AI  का 

घने लदे बादलों में के बीच से 

एक बूंद गिरती है 

दृष्टि भर ऊसर में 

उग आती है गेहूं की एक बाली 

और भी सारा कुछ एकांत 

में लिपटा मिल जाता है 


नहीं ढूंढ पा रहा हूं खुद को 

भागते भागते सड़कों , गांवों 

शहरों के मध्य 


मन के गहरे तलहटी में 

दुनिया के दूसरे हिस्सों में 

चल रहे युद्ध की चीत्कार

और युद्ध की विवशता पर 

खीझ काई सी लगती है 



शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

प्रियो की पीर !

 क्या ऐसा कोई हो

टोका गया न हो 

भीतर की गगरी छलके

अंदर का जवार न हो 


कोई ऐसा क्यों नहीं 

दुखता , व्यतीत होता 

समय के हाल पर 

अपनों के सवाल पर 

दिखते उड़ते कीट पतंगे


मां कहने को मजबूर

निकल जाओ फरक नही 

पिता फूटी आंख न सोहता 

पत्नी बच्चे फूंस पर गांठते


रेंगते कनखजूरे स्वस्थ होते

जंगलों में लताओं में 

भेड़िए निकल आए जंगलों से 

जल भराव भूचाल आंखों में

तरसते अपने प्रिय के बोल 


सृजन से संभव है प्रिय जन

घोंसले में पड़कुली 

सेती

प्रियों की पीर !


गुरुवार, 19 सितंबर 2024

निकला हूं मैं दिन खर्चने

 

निकला हूं मैं दिन खर्चने

थोड़ा नमक थोड़ा सुकून 

थोड़ी सी ले परेशानियां 


निकला हूं मैं दिन खर्चने

निकला हूं मैं दिन खर्चने 


बहती यहां नदियां नहीं 

कोयले भी अब जलते नही

खलती है मुझको उधारियां 


निकला हूं मैं दिन खर्चने 

निकला हूं मैं दिन खर्चने 


ये देखा वो देखा 

उसका ठेका इसका ठेका 

पेलम पेल चले है रेल

आगे निकले जाए तेल

धोखा है सब धोखा 

गली ने सबको रोका है 

फिर काहे का छौंका है 


मैने छोड़ी जिम्मेदारियां ....


निकला

 हूं मैं दिन खर्चने ...


सोमवार, 9 सितंबर 2024

कबाब में हड्डी !

 फिर क्या सबब

फेंकने को कबाब 

न मै जुदा हुआ

न आलू जनाब ! 


1. ये फूहड़ सी कविता कह कर मानव उठ जाता है । उठ के बाथरूम की तरफ भागता है । शीशे के सामने अपने को घूर कर , दो उंगलियां हलक में डूबो देते हैं । एक बड़ी सी पलटी मार के वो एक दम हीरो की तरह आते हैं । 

महफिल की तरफ बढ़ते हैं । कुछ उठाने के लिए झुकते हैं । और महफिल से चल देते हैं । महफिल में उनके नाते रिश्तेदार भौचक रह जाते हैं । डाइनिंग टेबल पर सजे गलावटी कबाब , शीरमाल और मटन ठंडे पड़ चुके हैं ।


कट टू 


V/O 

2. मानव के दिमाग में पिछले सभी दृश्य एक एक कर आंखों के सामने आते रहे । ससुराल की दीवारें इतनी संकुचित हो सकती हैं । उसने कभी सोचा नहीं था । शादी , विवाह घर द्वार सब की दास्तानें आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगीं । खाना पीना किसी परिवार के लिए 


मानव अपने कमरे में आ जाता है जहां पत्नी आभा कपड़ों पर प्रेस कर रही है । 

कमरे में घुप्प खामोशी है । केवल आभा की हरी चूड़ियां ही गुस्से में तेज तेज खनक रही है । 

मानव चुपचाप आकर सोफे पर बैठ जाता है । एक किताब उठाता है और पढ़ने लगता है । 

पिछले एक हफ्ते से मानव अपने परिवार के साथ लखनऊ के एक होटल में रह रहा है । 


. आभा पूरे कमरे की सफाई के बाद लेट गई । मानव सोफे पर बैठा किताब की आड़ से आभा के हाव भाव देख रहा था । वो एक झटके से सोफे से उठता है । और सीधे आभा के ऊपर लद जाता । आभा उसे हांथ से किनारे की ओर धकेलती है । मानव कुछ सेकंड दूसरी तरफ मुंह करे फिर से आभा के पास जाने की हिम्मत जुटाता है । मानव छिपकली के ऐसे घात लगा कर फिर से आभा को दबोच लेता है । 

आभा का विरोध इस बार कुछ कम बल का था । पर आँखें बंद थी । मुट्ठियां भींची हुई थी । मानव उसकी देह पर रेंगने लगा । उसने कई बार मानव को बताया कि वो व्रत है । 

आभा का दिल और दिमाग दोनों उस वक्त मानव से मेल नहीं खा रहे थे । मानव के ऊपर कुछ साबित करने का भूत सवार था । 


दोनों जब एक दूसरे से छूटे तो पस्त पड़ गए थे । काफी देर बाद मानव आभा के एकदम नजदीक आकर पूछता है । 

तुम परेशान हो ? 

आभा ने फिर एक बार मानव को धक्का दिया । और ऊंची आवाज में कहा " तुम लोगों ने परेशान कर रखा है " । जब से मैं तुम लोगों के घर पर रह रही हूं । तब से एक दिन भी चैन से नहीं गुजरा है । तुम्हारे मां पिता के लिए रोटियां सेकती रहूं , तुम्हारे बच्चे की परवरिश करूं , तुम्हारी चड्ढियों से लेकर घर का राशन पानी तक मै लाऊं । 


बस करो आभा ! मानव अपना दाहिना हाथ आभा के मुंह पर रख देता है । कुछ क्षण के लिए दोनों एक दूसरे के बेहद करीब आंखों में आँखें डाल घूरते रहे । 

मेरी चुप्पी को तुम हवा में मत उछाला करो । हज़ार बार कहा है । कहीं का गुस्सा कहीं पर मत निकाला करो । नहीं बात करनी तुमसे । देखता हूं कब तक यूं जाली रस्सी की तरह ऐंठी रहोगी । मानव कपड़े पहनता है । और निकल जाता है बुदबुदाते । 


होटल के अन्य कमरों में मानव के रिश्तेदार भी ठहरे हैं । लगभग शाम के खाने पर सभी लोग मिलते हैं । सुबह नाश्ते पर । फिर दिन भर सब अपने अपने रास्ते । 


आभा के भाई , उसकी पत्नी , बच्चा मां पिता एक लक्जरी सूट में रुके हैं । और मानव के मां पिता डीलक्स डबल बेडरूम । मानव का बेटा कभी दादा दादी के कमरे में तो कभी मानव और आभा के कमरे में । 


मानव के पिता जुगुल किशोर पुराने इत्र के कारोबारी हैं । फूल पौधों का रस निचोड़ कर वो इत्र बनाते थे । और इत्र को घर बैठे बेंच लिया करते थे।  उनके हिसाब से महक का कारोबार बड़ा सुगंधित होता है । महक के जानकारों को यदि सौ गरज हो तो वो आवै । 


आभा के पिता मास्टर जी , और मां रिटायर मास्टरनी । भाई अधिकारी , भाभी अधिकारी । 


दोनों लोगों के परिवार किसी कारण से यहां डेरा डाले पड़े हैं । 


मानव कुछ देर बाहर गुजार कर कमरे में आता है । आभा बेड के एक कोने पर बैठ , नेल पॉलिश लगा रही है । मानव की बॉडी लैंग्वेज बहुत सधी लग रही है । 

क्या इस झगड़े को यहीं खत्म नहीं किया जा सकता ? मानव की गहरी निगाहें आभा के हाथों पैरों में नील पोलिश को देखती हैं । 


आभा अपनी नेलपॉलिश को फूंकती है और बड़ी तहजीब से " नहीं " कहती है । 


मानव : क्या मतलब ? 

आभा : मतलब मै समझाऊं या तुम समझाओ ! मेरा दिमाग मत खराब करो । नहीं तो मैं यहां से उठ के चल दूंगी । मुझे शांति चाहिए ! शांति .... इसलिए चुप रह रही हूं । बाकी तुम्हारी मर्जी । अब मेरे और तुम्हारे बीच में कुछ बचा नहीं है । हम लोग यहां अलग होने आए हैं । अलग होकर ही रहेंगे । तुम्हारा काम है पेपर वर्क का । जल्द से जल्द कागज़ बनवा के अलग होइए । मैं और तमाशा बर्दाश्त नहीं करूंगी।  

बस एक सहयोग तुमसे चाहती हूं । कि 

ये काम होने तक किसी को पता भी नहीं होना चाहिए । वरना हमारे घरवाले फिर से हमें एक साथ फंसा देंगे । 

लाइट बंद कर देना । कहकर आभा चादर ओढ कर लेट गई । 


मानव भी एक किनारे सो जाता है । शाम होते ही बेल बजती है । आभा झटपट संभलती है । और दरवाज़ा खोलती है । 


जुगुल किशोर जी अपना टूटा मोबाइल दिखाते हुए कहते हैं । ज़रा देखना तो इसमें क्या हो गया ? 

आभा आराम से टूटने को समझाती है । और उन्हें वापस कर देती है । ससुर जी बैरन लौट जाते हैं ।


थोड़ी देर बाद पूरा परिवार एक साथ होटल के डाइनिंग हॉल में इकट्ठा होता है । 


दोनों परिवार देखने सुनने में एक जैसे । पर आचार विचार एक दम अलग । 


चूंकि होटल के इंतजाम मानव ने करवाया था । इसलिए सब कुछ उसके हिसाब से था । मेहराबदार दरीचे , पुराने शहर के पुराने खान पान सब मिल जाते हैं यहां । 


आज का खाना बाहर से आया था । होटल के बंधे खाने से आजादी का दिन है । सब खाने खुल खुल के प्लेट्स में लगाए जा रहे हैं । 


तभी आभा खड़ी होती है । सबका अटेंशन मांगती है । 

आप सब को लगता होगा कि हम सब यहां घूमने आए हैं ।हम यहां घूमने नहीं आए हैं । मैं और मानव एक दूसरे से छुटकारा पाना चाहते हैं । इसके लिए कोर्ट में पेपर पड़े हुए हैं । हम स्वेक्षा से दोनों लोग अलग हो रहे हैं ।  


जुगुल किशोर : इस बात का तो मुझे पहले से ही एहसास था । लेकिन किससे कहूं । इसलिए चुप रहा । 


आभा : पापा आप चुप रहे ? आप को अपने बेटे की खराबी नहीं दिखाई देती तो मेरी अच्छाई कैसे दिखाई दे । इस घर को केवल खाना खाना और खाना की पड़ी रहती है । 

न पढ़ाई की बात , न जीने का सलीका । सिर्फ अच्छा खाना और पड़े रहना घर में । ये कोई जीवन है ! 

ऊपर से ये लुमड़ मानव जी । पूछिए कितने साल हो गए हैं शादी को ? दिया क्या है इन्होंने । सिर्फ एक बच्चे के सिवा।  एक बच्चा , मां बाप और घर सब मेरे कांधे । और ये महाशय दुनिया की सैर काटें। 

अपने आप को हरफनमौला समझते हैं । हांथ में फूटी कौड़ी नहीं जुड़ती।  ये आदमी मेरे पर्स से पैसे चुराता है । बच्चे के गुल्लक से पैसे निकालता है । अय्याशियां करता है । 

आभा इतना कह कर अपने कमरे में चली जाती है । डाइनिंग टेबल पर आंधियां उड़ रही थी । सब की नजरें मानव पर लगी रही । मानव गुस्से से उठता है । और अपने कमरे की ओर बढ़ जाता है । 


मानव ने डोर बेल बजाई  , एक बार , दो बार फिर तीसरी बार । जोर जोर से दरवाजा पीटा । लगभग 1 मिनट के बाद आभा दरवाजा खोलती है । वो फोन पर किसी से बात कर रही है । उसने हाथों में नेल पॉलिश लगाई है । फोन कंधे से दबाए सभी उंगलियां फैलाए वो ए.सी के ठीक सामने बैठ गई । मानव परेशान हाल में सोफे पर बैठ जाता है । 


कुछ मिनटों बाद आभा फोन डिस्कनेक्ट करती है । और रील्स को स्क्रॉल करने लगती है । 


मानव : बस शुरू हो गया तुम्हारा । रील रील 

आभा : तुम से मतलब , मैं चाहे जो भी करूं ।

मानव : वो जो तांडव करके आई हो सब के बीच । उसके बाद रील देख रही हो आराम से । कमाल हो तुम ।

आभा : तुम्हे क्या लगता है ? मैं रोऊं , गिड़गिड़ाऊं तुम सब के सामने । ऐसा भूल जाओ । 10 साल मैने तुम सब की गुलामी की है । रोटियां बनाई हैं । कपड़े धुले हैं । तुम्हारी मां के तुम्हारे पिता के । तुम्हारे शरीर पर जो कुछ भी है । सब मेरा लाया हुआ है । बच्चे की पढ़ाई से लेकर घर के आम खर्चे । सब मैं ही करती हूं । 

बदले में तुम लोगों ने मुझे क्या दिया ? गालियां ! 


मानव : स्टॉप दिस नॉनसेंस ! तुम से बात करना बेकार है ।  मानव उठता है और चल देता है । बाहर की ओर । 

आभा : बस ! हो गया .... अब तुम निकल जाओगे । फिर आओगे थोड़ी देर के बाद । सब कुछ भूल के । हंसोगे , फूहड़ किस्से कहोगे । तुम लोगों के लिए ऐसा करना बहुत आसान है । पर हमारे लिए इज्जत बहुत बड़ी चीज है । हमारे लिए स्वाभिमान और स्वयं का सम्मान बहुत मैटर करता है । 


मुझे बस इतना बता दो । कि हम लोग कब निकल रहे हैं यहां से । मेरा दम घुट रहा है यहां । तुम लोगों की शक्लें देख देख मुझे अजीब सी उलझन हो रही है । 


मानव : आज भर और रुकेंगे । कल हम लोग निकल लेंगे घर के लिए।  मानव इतना कह कर रूम के बाहर निकल जाता है । 

होटल के नीचे , दो सिगरेट लगातार एक के बाद एक फूंकता है । वापस आता है । सभी को डाइनिंग टेबल पर खाना खाते हुए देखने लगा । 


दोनों परिवारों में मानव का परिवार मांसाहारी , और आभा का परिवार शुद्ध शाकाहारी और कर्म कांडी है । यही वजह है दोनों के संबंध हमेशा हाशिए पर रहते हैं ।  उन के अलग होने के फैसले पर इस बात का गहरा प्रभाव है । दोनों परिवार एक दूसरे से भिन्न । 


कट टू 


आभा कमरे में लेटी हुई है । मोबाइल पर कुछ स्क्रॉल कर रही है । मानव अपने कपड़े पैक कर रहा है । 


आभा : कहां जा रहे हो ? 

मानव : कहीं भी , तुमसे मतलब ! 

आभा : और मम्मी पापा सब ? 

मानव : उन सब को तुम ले जाना , जब मन करे । होटल का पेमेंट अगले तीन दिनों तक के लिए कर दिया है । खाने का भी । उसके आगे तुम लोगों को यहां रुकना हो । तो बता देना । मैं पेयमनेट कर दूंगा । 

  तंग आ चुका हूं तुम लोगों की झिक झिक से । तुम्हे तो मेरा दोस्त होना था । लेकिन तुम पत्नी ही बने रहना । अपने तीज त्योहार , व्रत , जिद लेके पड़ी रहो घर में । 


आभा : पड़ी रहो घर में ..... ( आभा भयंकर गुस्से में उठती है । मोबाइल , बेड पर पटक कर मानव के सामने अड़ के खड़ी हो जाती है । ) समझते क्या हो अपने आप को ? बिजनेसमैन , लेखक , निर्देशक या घर संभालने वाला पति ? 

इनमें से कुछ भी नही हो तुम । कुछ भी नही हो तुम । 


मानव तना खड़ा रहा । दोनों की नजरें और देह कुछ देर के बाद ढीली हुई । मानव फिर पैकिंग करने लगता है । 


आभा : बताओ कहां जा रहे हो ? 

मानव : हुंह ! पहाड़ पर । 

आभा : क्यों वहां क्या है ? तुम्हारी कोई प्रेमिका रहती है । जो जब मुंह उठाओ चल देते हो । 

मेरे साथ केवल एक बार गए । जो नाटक दिखाए थे तुमने । मुझे अच्छे से याद है । तुम्हे पता है , तुम्हारी सबसे बड़ी कमी क्या है ? तुम होल्ड नही कर पाते हो । न रिश्ते और न ही खुद को । बिखरे बिखरे , उखड़े उखड़े । 

तुम्हारी जिंदगी का मकसद क्या है ? 

मेरी जिंदगी का मकसद है आवारगी ! 


.......... क्रमशः 



रविवार, 1 सितंबर 2024

तुम कुछ और .......

 


मेरी माफी का जिक्र 

मुझसे न करना 

तुम कुछ और बह लेना 


कह लेना मुझसे 

मेरे कुफ्र की बातें 

कभी जब तन्हा 

तुम कुछ और रह लेना 


अभी कहा कहां हैं 

कहां जाने को हूं मैं 

यकीन आए तो तलबगार

तुम कुछ और सह लेना 


बुरा भला अब कहां 

मेरे बस में 

मेरे मौन को चीत्कार में

तुम कुछ और कह लेना !


सोमवार, 5 अगस्त 2024

एक आदमी !



एक आदमी रोज

घर से निकलता है 

शहर की जिम्मेदारी लिए


कांधों पर लादे कैमरा 

और हांथ में लट्ठ 

पोर्टेबल फॉर्म में 

जिसका इस्तेमाल मुंह में

खोंस देना है 

और तमाम होते तमाम 

सन्न देखते रहते हैं अपना 

चेहरा टी वी पर 

मोबाइल पर !


एक आदमी रोज

घर से निकलता है 

जरूरत के सामान लाने 

गर्मी , सर्दी बरसात लिए

कांधों पर 

और जिम्मेदारियां तमाम घर की 

ओढ़े अपने अस्तित्व पर 

भटकता है शहर की

ख़ाक छानता, सड़कों 

पर अराजकता और अतिक्रमण

का युद्ध लड़ता 

छल कपट और लूट

के डर से 

महंगाई लांघता शाम को

घर वापस आता है 

देख कर घर झुंझलाता है 

दिन की थकान घर पर 

उतार , पेट तान सो जाता है !


एक आदमी रोज 

घर से निकलता है 


रविवार, 4 अगस्त 2024

मां ने पढ़ना छोड़ दिया !



पहले काव्य छोड़ा

फिर पद्य में कहना 


मां ने पढ़ना छोड़ दिया

काढ़ना भी छोड़ दिया


गमलों का शौक था उसे

और गमलों में फूलों का 

हर बार किसी फूल के खिलने पर

वो सबको दिखाती 

देखने वाले वाह करते 

और निकल जाते 


गमलों में रसोई से निकले

खनिजों , लवणों को 

वो इस्तेमाल कर लेती 

उसे महसूस होता 

खराब को कारगर करने

का सुख


बाहर के बंदरों से 

तंग आकर छोड़ दिया

उसने पौधों से बात करना 


अब मां टाइम से 

सबको चाय देती है 

खाना देती है 

गर्म पानी देती है 


अब वो दालें , सौंफ और अजवाइन

बीनती है 

खरबूजे के बीजे साल भर

फोड़ती है 


मां नही बताती कुछ भी 

किसके लिए भी नही 

मां अप

नी दुनिया का

हर राज छिपाए रखती है 



गुरुवार, 1 अगस्त 2024

सुनो !


पूछते क्यों नही 

आकाश का पानी

कहाँ गया सारा


धरा की प्यास

बुझी नही 

क्यों अब तक ?


कब तलक

झुकी घटाएं 

नाट्य रूपांतरण

करती रहेंगी 


मेरी प्यास पर 

रोना आता है मुझे

मुझे मेरी तरह 

निबाह लो !


शनिवार, 27 जुलाई 2024

प्रिय पहाड़ ,

 


प्रिय पहाड़ , 

                कैसे हो ? मैं यहां ठीक से हूं । आशा है तुम भी वहां लाख आपदाएं सहकर ठीक से होगे ! मैं जब तुम्हारे खूबसूरती पर कसीदें पढ़ने वाले लोगों की आंखों में भय देखता हूं । तो सोच में पड़ जाता हूं । तुम्हारी खबरें मुझे यहां मैदान में ही मिलती रहती है । अब सूचना और प्रसारण के युग में पहाड़ और नदियों के हाल न मिले । तो आश्चर्य तो होगा ही । 

तुम्हारे नदियों के ऊपर गिरने की सबसे ज्यादा खबरें होती हैं । तुम्हारे गिरने को लैंडस्लाइड कहते हैं शायद । टीवी पर , अखबारों में , सोशल मीडिया पर तुम्हारी तबाही की तस्वीरें खूब मार्मिक ढंग से बतलाई जाती हैं । तुम्हारे सर से ,  कांधों से उतर कर लाखों लोग मैदान पर रह रहे हैं । वो सब ऐसी ही बाते बताते हैं । 

कभी धरती के दो टुकड़ों के टकराने से बने पहाड़ों की छाती पर हम इंसान चढ़ गए हैं । कुदाल , फावड़ा तसला और अर्थ मूवर मशीन लेकर हम तुम्हारे कांधों पर सवार हो गए हैं । तुम्हारे आकार प्रकार के सामने हम इंसान चिटियों की तरह तुम्हारे श्रृंखलाओं पर दिन रात चलते रहते हैं । हमारे देव स्थान तुम्हारी चोटियों पर हैं । तुम्हारी चोटियों पर शायद इसलिए हों । कि हमें तुम्हारी खबर रहे । 

मूरख हैं हम सब । पहाड़ ! यार तुम समझते क्यों नहीं हो । तुम्हारे भीतर कितना धैर्य है ? तुम्हारी तथस्तता , तुम्हारा अटल खड़े रहना हमको अच्छा नहीं लगता है । हम चाहते हैं कि इस पृथ्वी की हर वस्तु हमारे काम आ जाए । हमारे लॉन में आकर सज जाए । जब नही सजती तो फिर प्रयोग करते हैं । तुम्हे पा लेने के । मुझे दया आती है । उन पर्वतारोहियों पर ।  इतनी कड़ी मेहनत कर के तुम्हारे शिखर को छू कर आने का हौंसला पहाड़ इतना बड़ा हो सकता है । 

लेकिन आस्था के नाम पर गांव शहर बसते । पहाड़ों पर बढ़ती आबादी , बढ़ते कंक्रीट के ढांचे तुम्हे नुकसान पहुंचा रहे हैं । मल, मूत्र प्लास्टिक कचड़ा , इलेक्ट्रॉनिक्स सब तुम्हारे जीवन धारा को अवरूद्ध कर रहे हैं । 

तुम्हारी देह को सांस लेने में दिक्कत हो रही होगी । 

तुम्हे याद है न ! जब मैं और तुम रात कहीं गुम हो गए थे । मैं पैदल चलता जा रहा था । तुम मुझे कहीं भी थकने नही दे रहे थे । पूरी रात मैं चला पैदल तुम्हारे साथ । और कोई इंसान नही था उस रात हमारे बीच । मैं केवल मौन चल रहा था । तुम्हारे ऊपर रहने वाले अनगिनत जीव जंतु जंगल की खूबसूरती को रात के अंधेरे में एंजॉय कर रहे थे । चांद कभी पेड़ो में छिपता तो कभी पहाड़ों में ।


पहाड़  तुम धरती का ही हिस्सा हो । मैं मानता हूं । पर ...

हमारे लोग तुम्हारे भीतर सीमेंट और लोहा भर दे रहे हैं । तुम्हारा प्राकृतिक आनंद जा रहा है । मुझे डर है । कहीं तुम सूख तो नही रहे हो । 

तुम्हारा सूखना , मतलब दरकना और दरकना मतलब तबाही । देखो ना ! तुम्हे मै डरा हुआ सा महसूस हो सकता हूं । मैं वाकई हूं । तुम्हारी फिक्र भी है मुझे । पर मैं क्या कर सकता हूं । मैं कोई सरकार नही । 

मैं कोई क्रांतिकारी नही , मैं कोई इतनी बड़ी ताकत नहीं जो तुम्हारे साथ हो रहे दुर्व्यवहार को मैं खत्म कर सकूं ।लेकिन हां ! वो लोग सब  मेरे जैसे ही हैं । 

मैं नहीं आया बहुत साल से तेरे पास । गुस्सा आता था मुझे । तुम्हारे ऊपर हो रहे अतिक्रमण और जोर जबरदस्ती को देख कर । कितने साल हो गए ! तुमसे मिले हुए । दस साल से शायद । अब तो सब और बदल गया होगा । कुछ नई हवाएं , घनघोर विकास की हवाएं चली हैं इधर । उनका तुम पर क्या असर पड़ रहा होगा । इस बात को तुम बताते भी नही ।

तुम मेरी तरह खत नही लिख सकते । अनपढ़ कहीं के ! बुद्धू ! लोग ठीक ही कहते हैं जो बड़ा होता है उसका दिमाग पैरों में आ जाता है । 

मैं तुम्हारी जगह होता । तो एक बार में करवट बदलता । बस सब झील झांझर जमीन में या नदियों में । किसी नुकसान का ठेका न लिया होता । 

मेरे साहसी पहाड़ , अपना ख्याल रखो । रख पाओ जैसे रख पाओ । हमारी चिंताएं करनी छोड़ो ।

हम तो चीटियां हैं । अपना काम करते रहते हैं । हमारे पास हेलीकॉप्टर है , हमारे पास बारूद है । हमारे पास रॉकेट है परमाणु है । वैसे हमारी तादात इतनी है कि 8 से 10 हजार लोग एकसाथ न रहे । तो कोई फर्क नहीं । हम जब किसी हादसे से बच जाते हैं । तो हमें लगता है । हम खुदा हो गए हैं । सोचता हूं इस खत के तुरंत बाद या थोड़े समय के बाद । मैं आ पाऊं तुमसे मिलने ! मुझे स्वीकार तो करोगे ना । मैं दबे पांव आऊंगा तुम्हारे पास । तुम्हारी ओट में कहीं शरण पाऊंगा । और कुछ दिन गुजारूंगा तुम्हारे साथ , बिना तुम्हे सताए । 

मैं तुम्हारे शिखरों पर विराजमान देवताओं से तुम्हारी रक्षा का आवाहन करता हूं । तुम्हारे शिखाओ पर शोभायमान समस्त देवियों से प्रार्थना करता हूं । कि तुम्हे हमारे प्रकोप से बचाए । 

प्रिय पहाड़ , अपनी नदियों को संभाल के रखना । मैं आता हूं जल्द तुम से मिलने।  


तुम्हारा 

मैं !


गुरुवार, 25 जुलाई 2024

आवारगी बेईमान !


एक दम निपट खाली 

आवारगी अपना चेहरा

बना लेती है सोंठ

की तरह 


आवारगी मोल लेती है 

अपना , अपनों के 

तीष्ण बाणों से 

सवालों से घिरी रहती 

पता पा लेने वालों से 

पता पूछती है 

गुमशुदा लोगों से 


विदा का खेल है

आना जाना और गुम 

रास्तों को भूलना 

बिना कोई ठेस पहुंचाए

निकलना कोई धोखा नही 


आवारगी धाम है मेरा

आवारा सड़कों पर 

निगाह ढूंढती है आवारा 

जंगली का ताज लिए 

घूमता हूं भटक जाने तक


काम से निकले काम 

की राह भटक जाना

गुण है शायद 

आवारगी का


घर में चावल , चीनी

लाने भेजा जाता है 

भटक कर झील की

राह आंखों में तैरते

सपने सुकून से देखता हूं 


रोज रोज भटकने का

मन करता जरूर है 

पर जाऊं कहां 

कितनी दूर , कितने समय को 

जाऊं , छूट जाए दिनचर्या

का भाव , बह जाएं

छूट जाने के दुःख 


सब कुछ हासिल करने

की ज़िद और आरामतलबी 

कभी न कभी छीन लेती है 

गतिशीलता के गुणधर्म को 


उम्र पर चढ़ती झाइयां 

राशन से निकलती नही


अटक जाते हैं हम

एक मकान , एक परिवार

एक जिंदगी 

के फेर में

देहरी के उस पार

भटकती दुनिया दिखती है ।



शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

.....क्रमशः फिर वही चंडीगढ़ !

 


आधी रात बीत चुकी है । फिल्म के कंप्लीट करने का डेडलाइन मुंह बाए खड़ा है । बॉस काम को समय से पूरा करने की तसल्ली , अपने बॉस को दे रहे हैं । मैं जहां हूं , वहां से बहुत दूर हूं । दूरी होने की वजह से काम की चिंता तो दिन रात हावी है । पर काम की चाल लगभग शून्य पर अटक गई है । फिल्म का एडिटर दिल्ली में है । जो कहीं फूल टाइम जॉब करता है । फिल्म के डायरेक्टर साहब मुंबई में हैं । वो किसी जरूरी काम से हैं वहां । हमारे क्लाइंट दिल्ली और चंडीगढ़ में हैं । उनके पास हमारे जैसे कई लोग हैं देखने सुनने को । उनको काम चाहिए । हमारी व्यस्तताओं की कहानी नही । 

  पिछले कुछ दिनों से मैने हिंदी की 20 फिल्मों के लिए करेक्शन कई जगह , कई बार लिखे । डायरेक्टर साहेब की नसीहतों के नक्श ए कदम पर मैं चले जा रहा था । मेरे पास लैपटॉप या कंप्यूटर नही है । लिहाजा सारे काम फोन पर ही होते हैं । फोन पर स्क्रिप्ट लिखना । फोन पर कंटेंट रिव्यू करना , मिसिंग को ढूंढना फोन पर । बीस फिल्मों के कंटेंट को कई बार डाउनलोड करना , उनके साथ खेलना बहुत मुश्किल हो जाता है । और उबाऊ भी ।

  एडिटर जब जब करेक्शन की लिस्ट देखता है । तो भड़क जाता है । फिल्मों की एडिटिंग , कलर ग्रेडिंग , रिव्यू और अपीयरेंस को परखने के लिए हर बार आउटपुट निकाल कर लो रेज फाइल ग्रुप में डालना । प्रोजेक्ट को खोलने बंद करने में लगभग आधा घंटे का समय लग जाता है । ऊपर से इतनी बाधाएं । चंडीगढ़ चैप्टर का पहला फेज खत्म होने के बाद उसने चैन की सांस ली थी । कि अब वो इत्मीनान से शादी कर पाएगा । की भी । 

     पर कुछ ही महीने के भीतर इस प्रोजेक्ट का दूसरा फेज चालू हो गया । बड़े ही मायूसी भरे शब्दों में एडिटर साहब ने बातों ही बातों में बताया कि उन्हें इस काम के लिए कुछ भी नही मिला है । उन्हें मांगना अच्छा नहीं लगता । हमारी टीम में अधिकतर लोग ऐसे ही थे । जिन्हे मांगना अच्छा नहीं लगता । 

   पहली नजर में काम की पेचीदगी समझ नही आई । फिल्में अपने खांचों में फिट थी । बस थोड़ा नया अपडेट करना था । पर क्लाइंट को चाहिए था सब कुछ नए कलेवर में । इस काम को पूरा करने के लिए । हमारी टीम ने सोचा था कि कुछ दिनों के लिए चंडीगढ़ जा कर कुछ सीन्स , इंटरव्यू और प्रोफाइल शूट किए जाएंगे । पर ऐसा संभव नहीं हो सका । समयाभाव या धनाभाव कुछ तो जरूर रहा होगा । मुझे रह रह कर अपने इधर कही जाने वाली कहावत " थूक में सतुआ सानना" रह रह कर याद आ रहा था । 

इस पूरे काम के पहले चरण में जो दुश्वारियां मैने झेली थी । उनका असर मेरे दिल ओ दिमाग में गहरा था । मुझे चंडीगढ़ के नाम से नफरत होने लगी । मैने यह बात सिवाय अपने डायरेक्टर के किसी से नहीं साझा की । काम की भसड़ का पैमाना बहुत जटिल होता जा रहा था । और उस समय बॉस से हर्जा खर्चा तक की बात न हो पाना । मेरे लिए जग हंसाई का सबब बन सकता था । लगातार 20 दिनों तक कुछ घंटे की नींद । और जबरदस्त तनाव , दबाव में काम । हमारे बॉस का मानना था । कि यह पूरा प्रोजेक्ट मेरे लिए फिल्म स्कूल है । यह सब मेरे लिए पहली बार हो रहा था । 

ऐसा भी नहीं था । कि मेरे द्वारा कोई इतिहास रचा जा रहा हो । 

कुछ न कुछ तो लगातार मन में कचोट रहा था । कम संसाधनों में काम को पूरा करना , गिरी से गिरी स्थिति में काम को करने का मोटिवेशन हमारे बॉस का शगल है । वो अक्सर भविष्य के दिवा स्वप्न दिखा कर वर्तमान को पार कर जाते । और उनकी नांव में हम सब भी । 


  

मैं लौट आता हूं अक्सर ...

लौट आता हूं मैं अक्सर  उन जगहों से लौटकर सफलता जहां कदम चूमती है दम भरकर  शून्य से थोड़ा आगे जहां से पतन हावी होने लगता है मन पर दौड़ता हूं ...