कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

पहाड़ गंज की नेयोन लाइट्स !

तस्वीर : प्रतीकात्मक 


मानव को बड़े शहरों की चकाचौब्ध बेहद अच्छी लगती थी . इसलिए वो अक्सर किसी बड़े शहर का ख्वाब देखता. बड़े शहर की परिकल्पना उसके जेहन में तरह तरह से पैबस्त थी . बड़ी बड़ी इमारतें , खूबसूरत नज़ारे और अच्छे संपन्न लोग . सम्पन्नता देखने में किसे अच्छी नहीं लगती . 

हालांकी वो भी संपन्न दिखता था . चौड़े कंधे गोरा चिट्टा . कपडे फटे पुराने होते हुए भी सम्पन्नता की न जाने कौन सी कहानी बयान करते हुए . हाँथ एकदम लक्कड़ ऐसे सख्त पर हमेशा मुस्कुरा के जवाब देना उसकी खूबसूरती थी . पिछले 10 साल से वो मजदूरी का काम कर रहा है . कभी लकड़ी की अड्डी पर लकड़ी ढुलाई का काम तो कभी लकड़ी काटने के काम . 

जब कभी मानव को इच्छा होती कोई बड़ा शहर देखने को . मानव अपनी मजदूरी छोड़ बैटरी रिक्शा का दामन थाम लेते . कुछ दिन किसी बड़े शहर की हवा खा कर वापस अपनी मजदूरी पर . पर शायद ही वो किसी काम को न कहता हो . 

  इधर कुछ दिनों से मानव को दिल्ली की लत लगी हुयी थी . वैसे इससे पहले तक उसको बड़े शहर बम्बई या हैदराबाद जैसे ही लगते थे . दिल्ली के बारे में उसे कुछ दिनों पहले ही मालूम चला था . दिल्ली में इंडिया गेट है , दिल्ली में उसके चाचा का घर है . वो रोज़ दो गुनी मेहनत करता . पैसे जुटाता और अपनी मां के पास जमा करा देता .  दिल्ली के नाम से उसके कान आँख सब खड़े होने लगे थे . अख़बारों में दिल्ली की ख़बरें , टी वी में दिल्ली , मोबाइल में दिल्ली . दिल्ली की ठंढ  उसे नजर आती .  

उसके चाचा जब कभी गाँव आते , उसे दिल्ली की वाहवाही बताते . इस बार मानव ने अपने चाचा से दिल्ली में काम करने की इच्छा जाहिर की . और उन्ही से चालू टिकेट का रिजर्वेशन भी करवा लिया . मानव , एक शाम की पीठ पर सवार  निकल लिया दिल्ली की ओर . काली जींस , काला चश्मा ,सफ़ेद काली पट धारी वाली चुस्त टी शर्ट . लेदर पर्स , स्पोर्ट्स कैप और काले जूते . पिठू बैग में उसके नए शहर की आब ओ हवा भरने वाली थी .

 कोरोना काल के कारण एक अरसा हो गया था . ट्रेन की यात्रा किये हुए . सुबह आँख खुली तो कोहरे में ढकी दिल्ली उसके क़दमों में थी . रिक्शा ऑटो कार वालों की लाइन लग रही थी . नहीं भैया ... हम खुद यहाँ काम करने आये हैं . मानव का जवाब सीधा सपाट ठीक उसके व्यक्तित्व की तरह . थोड़ी देर एक किनारे सिगरेट शॉप पर सिगरेट सुलगाई . सार्वजानिक शौचालय से चमक कर मानव ने चाचा को फोन लगाया . पर फोन उठा नहीं . एक बार , दो बार , कई बार . यह उसके लिए कोई नयी बात नहीं थी . बड़े शहरों के बारे में कुछ कुछ तो जान ही चूका था . वो घूमता रहा . गली दर गली . सब कारोबार चल रहा था . यूँ कहें दौड़ रहा था . इन्ही संकरी गलियों में उसके कदम पहाड़गंज में पड़े . जैसे रेलवे स्टेशन के टैक्सी वालों ने स्वागत किया था . ठीक वैसा ही स्वागत उसे पहाड़गंज में मिलने लगा . शाम ढलते ढलते मानव ने मान लिया था . कि चाचा उसका फोन नहीं उठाएंगे . उसने ठहरने की सस्ती जगह खोज ली थी .

 उसकी एक नज़र दिल्ली की दुनिया पर थी और दूसरी नज़र अपनी पॉकेट पर . उसकी एक दिन की दिहाड़ी में उसको होटल रूम मिल गया . और नवाबी ठाठ अलग से . दिन भर में चार लोग सलाम ठोकने आते हैं .... सर कुछ चाहिए हो तो बताइए ....! वो जब अपने इधर लकड़े के मोटे मोटे घट्थर  अपने कंधे पर रखता है . उस समय वो किसी से कोई बात नहीं करता . पर यहाँ वो सबसे बात कर रहा है . मुस्कुरा के . उसके चाचा उससे मिलते तो शायद मुस्कुरा रहे होते . मानव ने चादर तानी और सो गया बगैर कुछ खाए पिए . 

यहाँ से मानव के पास दो विकल्प थे , या तो वापसी का टिकेट करके घर जाना या कोई काम ढूंढना . दूसरे दिन मानव वही लक्कड़ ढ़ोने वाले कपडे पहने सुबह लेबर अड्डे पर पहुँच जाता है . कुछ ना नुकूर के बाद उसे कुछ काम मिल जाता है . दिल्ली की कड़क भाषा में काम और भारी लगने लगता है .  फिर भी दो दिन में तीन जगह काम करके चार दिन की दिहाड़ी बना ली थी . लेकिन इन दो दिनों में पहाड़गंज की सड़कों के दोनों तरफ पसरे बुद्ध उसकी आँखों में चमक रहे होते .  

उसका फैसला जैसे अब पलटता जा रहा था . उसे यहाँ की भीड़ से ऊभ हो रही थी . उसने घर वापस जाने का फैसला किया . पर खुद को समय देते हुए . वो जब भी शाम को होटल रूम को आता तो एक दिन का एडवांस किराया चुका देता . उस दिन भी एक दिन का एडवांस चुका दिया . वो आखरी बार अपने कमरे की शांति और बादशाहत महसूस करना चाहता था . शाम होते ही मानव फिर से अपने पसंदीदा कपडे पहन के निकल पड़ता है पहाड़गंज की नियोन लाइट्स में . पहाड़गंज की नियोन लाइट्स दिन में तो नहीं दिखती . दिन में पहाडगंज की मार्किट चलती है . रात में सड़कों के दोनों तरफ ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं में दुनिया बसने आती है . उन्ही अट्टालिकाओं में 24 घंटे के इर्द गिर्द दुनिया घूमती है . दुनिया में भी दो दुनिया . मेज़बान और मेहमान .ऐसी मेहमाननवाज़ी जहां आप की जेब के नीचे की दुनिया बाहर निकलने को उछाल मारे . और ऐसी मेजबानी जो आप से मोहब्बत से सारे काम करवा दे .

पहाड़गंज की  गलियों में घूमते हुए मानव को  लगता है . जैसे समय की यहाँ सबसे ज्यादा अहमियत है . दिन में स्टील को ढोते मजदूर , पल्लेदार , व्यापारी और नियोन लाइट्स की चकाचोंध को बरकरार रखते कारिंदे . छोटी छोटी गलियों की भट्ठी में पिघलते जिस्म स्वाद की बाँट जोहते . और रात में जैसे दूसरी दुनिया ने केवल रात भर के लिए जन्म लिया है . एक ऐसी दुनिया जो 24 घंटे काम करने वालों की है . दिन की मेहनत रात में रंगीन नज़रों से खुशनुमा होती है . 

उसके सपनों की दुनिया में टिम टिम करती नियोन लाइट्स और चहल पहल कुछ समय के लिए ही थी . उसके लकड़ी हो चुके कंधे और पेट को इससे ज्यादा आराम कभी नहीं मिली थी . बुद्ध को शायद ऐसा ही आराम मिला होगा कभी . 

मानव पहली बार वो सीढियां चढ़ रहा था . जहाँ उसने जाने की कभी कल्पना भी नहीं की थी . पहाड़गंज की ट्रेवल सर्विस इंडस्ट्री की एक सर्विस में उसने जब पहली बार कदम रखा . तो उसके सामने सुनहरे द्वार , हलकी नीली रौशनी में 24 घंटे नहाता संसार दिखा . 

जी सर बताइए ...

मसाज हो जाती है ... ? मानव ने पूछा .

यस सर .... केवल मसाज ही करवानी है ... या सर्विस भी ...

सर्विस .... क्या होती है ? .... आप के कहने का मतलब बॉडी की सर्विस !

यस सर ऐसा ही समझ लो ... रिसेप्शनिस्ट मुस्कुराते हुए मसाज का बिल काट देता है . 

मानव एक छोटे से कमरे में पड़े बेड पर बैठ जाता है . नीली और फ्लोरेसेंट लाइट्स में स्याह और सफ़ेद का भेद गुम हो रहा था . कुछ मिनट बाद एक युवती मानव के सामने आती है . मानव ठिठक जाता है . और झट से खड़ा हो जाता है . 

जी बताइए ! मानव मुस्कुराते हुए ..

बताऊँ क्या ... कपडे पर मसाज करूँ ... ?

मानव ने उसकी डांट को अनसुना करते हुए कपडे उतार कर पेट के बल लेट गया . युवती ने  तेल की कटोरी को मानव के सिरहाने रख मालिश शुरू कर दी . मानव को ये सब अपनी लक्कड़ वाली दुनिया से सपने वाली दुनिया में बदलते लग रहा था . मानव के दिमाग में घडी की टिक टिक चल रही थी . उसने तो कहा था 1 घंटे मसाज होगी . पर ये तो कह रही थी 45 मिनट . इस सोचने के क्रम को तोड़ते हुए मानव ने युवती से पूछा . तुम्हारा नाम क्या है ...

युवती का जवाब किसी विदेशी नाम से आया . 

तुम कब से कर रही हो मसाज ?

 4 साल हो गए . 

ओह ! इन चार सालों में क्या आप की मसाज किसी ने की है ? 

युवती की आवाज़ का मिजाज़ बदल गया .

नहीं हमारी कौन करेगा .... बचपन में शायद माँ ने की हो ...क्यों मसाज सही नहीं कर रही मैं ...?

मेरे चाचा मेरी मसाज की बहुत तारीफ करते थे . मुझे भी लगता है मैं अच्छी मसाज कर लेता हूँ .  कह कर मानव चुप हो गया .

लगभग 30 मिनट बाद युवती ने पूछा सर और .... ?

मानव ने करवट बदलते हुए कहा अरे अभी 15 मिनट हैं ...

युवती ने कुछ ही क्षण बाद कान में धीरे से कहा ... सर सर्विस नहीं लेंगे ? 

मानव ने मना करते हुए कहा नहीं केवल मसाज ही लेना है . 

मसाज का तय समय पूरा हो चुका था . मानव उठ कर संभलने लगा . 

फिर युवती ने पूछा .... सर सर्विस ....!

मानव ने पूछा सर्विस का कितना लगेगा ...

युवती ने कहा जितना मसाज का लगा ...

कुछ सोच कर मानव ने कहा  ... चलो एक काम करते हैं 

तुम अपने मालिकों से पूछ कर आओ ... कि क्या मैं तुम्हारी मसाज कर सकता हूँ !

हाँ मैं तुमसे कोई पैसा नहीं लूंगा और तुम्हारे मालिक को उतने ही पैसे दूंगा जितना मेरी मसाज के लिए ...

युवती अजीब सी स्तिथि में फंस गयी ...उसके सामने कभी ऐसी दुविधा नही थी । वो पीछे के कमरे में गयी . जहां उसके साथ काम करने वाली अन्य युवतियों सहित एक छोटी बच्ची भी थी . वो बच्ची उन्ही में से किसी की या मालिकान की हो सकती थी शायद . 

करीब 10 मिनट इस बेहद अजीब ओ गरीब ख्वाहिश पर चर्चा कर के वो युवती आई . 

उसने कहा ठीक है ... सर ... पहले पैसे जमा कर दीजिये ...

मानव ने पैसे भर के उस युवती को दुबारा आने को कहा ...

युवती ने वैसा ही किया ..

मानव ने हाँथ जोड़ उसका अभिवादन किया . और युवती को आराम से लिटा दिया . उसके लक्कड़ हंथेलियों में न जाने कहा की नरमियत आ गयी . आहिस्ता आहिस्ता युवती को मसाज करता हुआ वो अपने चाचा की मसाज को याद कर रहा था . फिर भी उसके स्पर्श से युवती असहज महसूस कर रही थी . करीबन 15 मिनट बाद युवती ने कहा आप अच्छी मसाज कर लेते हैं ... पर मुझे बड़ा अजीब लग रहा है ... मानव पैर के पंजों को भारी हांथों से रगड़ते हुए कहता है ... अरे आप के पास पुरे 45 मिनट हैं .... आप यूँ समझिये कि आप किसी बड़े होटल के स्पा में मसाज ले रही हैं .... फिर भी युवती की असहजता को महसूस करते हुए .... मानव के हाँथ थम गए ... 

युवती बाहर जाकर अपनी सहकर्मियों के बीच इस बात की चर्चा कर रही होती है . खूब ठहाके लग रहे थे . मानव कुछ मिनट उस छोटे से कमरे की सजावट देखता रहा . जब वो बाहर निकला . तो सारे लोग मानव को देख रहे थे . मुस्कुरा रहे थे . वो छोटी बच्ची हाँथ में गुलाब पकडे मानव को देती है . मानव ने उस युवती को कुछ और पैसे दिए ... छोटी बच्ची के लिए कॉपी और पेंसिल के बाबत . 

मानव का शरीर पहले से बहुत हल्का लग रहा था . उसके कंधे फिर से तैयार थे ....उसकी हंथेली की लकीरें नर्म पड़ गयी थीं . उस युवती की असहजता उसे गहरी सोच में डुबो देती है । 

 




 

कोई टिप्पणी नहीं:

मैं आ रहा हूं ... #imamdasta

  जो सिनेमा हमारे नज़दीक के थिएटर या ओ टी टी प्लेटफार्म पर पहुंचता है । वह हम दर्शकों को तश्तरी में परसा हुआ मिलता है । 150 से लेकर 600 रुपए...