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शनिवार, 5 जुलाई 2025

"पहाड़ों की गोद में बसा एक दिल "

  


रानीखेत….रानीखेत से यूँही कुछ 20 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है सौनी, वही सौनी जिसकी हर एक ईंट पर स्वर्गाश्रम बिनसर महादेव का आशीर्वाद है। 

जहाँ हवा में ठंडक और स्मृतियों में गर्माहट बसती है, इस गाँव ने देश को अच्छे इंजीनियर, डॉक्टर , सरकारी अधिकारी और शिक्षक दिए है। 

गाँव की शुरुआत की पहली इमारत ही शिक्षा का मंदिर है। एक सरकारी स्कूल जहाँ मेरी माँ ने अपने जीवन के कई साल सहायक अध्यापक के तौर पर दिए है। 

इसी प्राइमरी स्कूल के एक छोर पर है आँगन बाड़ी, वो जगह जहाँ पर मैंने लिखना सीखा, पहले बार पेंसिल यही पर उठाई थी मैंने, अब लिखने के लिए लेकिन लैपटॉप का इस्तेमाल करने लगी हूँ। स्कूल से कुछ आगे बढ़कर है एक चक्की , और एक घुमावदार मोड़, यहाँ से गुज़रने पर पड़ेगा पहला मकान, वही छत जिसके नीचे मैंने पहली बार आँखे खोली। 

उस घर के आँगन में, जहाँ कभी सूरज की किरणें और चाँद की चांदनी एक-दूसरे से होड़ लगाती थीं, अब दरारें उभर आई हैं। उन दरारों के बीच छुपा है एक लड़की का बचपन—वह लड़की, जो पहाड़ों को अपना घर समझती थी, जिसके कदमों ने इस आँगन की मिट्टी को पहली बार छुआ था, जिसके हँसी-खेल ने इस आँगन को जीवंत किया था, और जिसके आँसुओं ने इस मिट्टी को सींचा था। 

लेकिन आज वह लड़की, शहर की चकाचौंध में खो गई है, और वह आँगन, जो उसकी साँसों का हिसाब रखता था, अब उसे ढूँढे नहीं मिलता।मेरा जन्म पहाड़ों में हुआ, जहाँ सुबह की पहली किरण पेड़ों की पत्तियों को चूमती थी और शाम की आखिरी रोशनी चट्टानों पर ठहर जाती थी।

 मेरा घर वही था, जहाँ खिड़की से झाँकते ही बर्फ से ढके शिखर मुस्कुराते थे, और हवा में घुली थी देवदार की महक। आँगन में एक पुराना संतरे का पेड़ जिसके संतरों का हिसाब मैं अपनी उँगलियों पर रखती थी और मजाल किसी की जो संतरों को छू भी सके। मानो पहाड़ों ने मुझे अपनी मिट्टी से गढ़ा हो। इसी घर के आँगन में ही मैंने चौलाई की लकड़ी पकड़कर चलना सीखा। 

यही पर अपनी पहली पीली रंग की साइकिल चलाना सीखा। वो आँगन मेरे पचपन को जैसे समेटे बैठा है। आँगन मेरा अपना नहीं था, हमारे मकान मालिक जिनको मैं बाबू बुलाती थी उनका और उनकी पत्नी यानी मेरी ताईजी का था। लेकिन उस आँगन ने मुझे अपना ज़रूर बना लिया। बाबू ने चलना सिखाया, और ताईजी अपने साथ डलिया में रख कर खेतों में ले जाती। मिट्टी खाकर और गाय के गोठ में सोकर गुज़रा है मेरा बचपन । सौनी ने मुझे पाल कर बड़ा किया है और मैं इतनी मतलबी इसी गाँव को भूल गई। समय ने अपने पाँव पसारे।

 पहाड़ों की सादगी और संसाधनों की कमी ने मुझे पढ़ाई के लिए शहर की ओर धकेल दिया। पहले कॉलेज, फिर नौकरी की तलाश—शहर की चमक ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। वह आँगन, जहाँ मैंने अपने पहले कदम रखे थे, धीरे-धीरे मेरी स्मृतियों में धुंधला होने लग गया। मेरी यादे इसी आँगन की मिट्टी में ही कहीं दफन हो गई ।शहर की ऊँची इमारतों और तेज़ रफ्तार जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया—एक नौकरी, एक नया ठिकाना, और शायद एक नया सपना। लेकिन उसने मुझसे मेरा आँगन छीन लिया। वह आंगन, जहाँ बाबू और ताईजी मुझे आज भी याद करते हैं । 

ताईजी तो इतनी भोली हैं की आज भी मेरी बचपन की तस्वीर देख रोने लगती है । मैं चाहकर भी उस आँगन को नहीं ढूँढ पाती अब। पर मैं जानती हूँ यहीं मेरा बचपन अब भी उन दरारों में साँस ले रहा है।कभी-कभी, जब रात गहरी होती है और शहर की रोशनी थम जाती है, मुझे लगता है कि हवा में देवदार की महक तैर रही है। आँखें बंद करती हूँ , और एक पल के लिए वह आँगन फिर से जीवंत हो उठता है।

 मैं आज भी उस आँगन को ढूँढ रहती हूँ, जहाँ मेरी साँसों का हिसाब है। लेकिन तब तक, वह आँगन सिर्फ़ एक सपना है, जो पहाड़ों की गोद में कहीं खो गया है।


साभार  " मानसी जोशी " 

"पहाड़ों की गोद में बसा एक दिल "

   रानीखेत….रानीखेत से यूँही कुछ 20 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है सौनी, वही सौनी जिसकी हर एक ईंट पर स्वर्गाश्रम बिनसर महादेव का आशीर्वाद है...