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रविवार, 29 जनवरी 2023

उपन्यास !

 भूमिका 

मुझे ठीक ठीक पता नहीं कि मैं ये क्यों लिखने बैठ रही हूँ . इसके बात को लिखतें समय समझ आने की गुंजाईश पर छोड़ रहा हूँ . मुझे लिखने का शौक बचपन से रहा है . जब मैं क्लास टेंथ में था . तब सबसे पहले मैंने छोटी सी कहानी "चौकीदार " लिखी थी . एक पतली सी डायरी पर . पेन्सिल से . उसके बाद उस डायरी में कुछ कवितायेँ भी लिखीं . बहुत सालों तक उस डायरी को सहेज कर रखा रहा . पर फिर वो कहीं खो गयी . राइमिंग में कुछ शब्द लिख देना कवितायेँ नहीं होती . ऐसा मुझे बड़े होकर कवितायेँ पढने के बाद पता चला . मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि उन कविताओं में भाव नहीं थे . होंगे , मुझे ऐसा लगता था और आज भी लगता है . पर ऐसा सके साथ होता है . जो भी लिखता है . उसे लगता है . कि वो इस सदी की सबसे उम्दा कृति रच रहा है . 2011 में मैंने एक ब्लॉग बनाया " प्रभात की दुनिया " के नाम से . ब्लॉग पर पहली बार मैंने " यह शहर ए लखनऊ है " है लिखा . मेरे हमसफर लखनऊ के बारे मं कुछ लिखा गया था . बाद में गाहे बगाहे कुछ न कुछ ब्लॉग पर लिखता रहा . मैं अपने लिखे का कहीं भी छपने का दावा नहीं करता . क्यों कि ऐसा हुआ ही नहीं . जीवन में 2 या 3 बार अपना लिखा प्रकाशित करवाने की झिझकते हुए कोशिश की . पर सफलता नहीं हाँथ लगी . एक बार प्रतिष्ठित पत्रिका में एक कहानी प्रकाशित करने को ई मेल से भेजी . जवाब आया . कि कहानी बड़ी है . लघु कथा के लिए उपयुक्त नहीं है . फिर उसके बाद कभी मन नहीं हुआ . 

मुझे हमेशा ऐसा लगता था  . कि लिखना स्वयं के लिए होता है . जिन भावों को हम किसी से साझा  नहीं कर सकते . उन्हें लिखा जा सकता है . भविष्य में हम उनका उपयोग खुद को समझने या स्मृतियों में विचरण करने को कर सकते हैं . लिख कर किसी से साझा करने में तो इतनी शर्म आती है . कि कुछ पूछो न .जो लिखा गया है वो स्वयं के लिए लिखा गया है . फिर उसे दूसरों के सामने प्रदर्शित करने से क्या फायदा . सामने नहीं तो पीछे से मखौल ही बनता होगा . मेरा यह मत ज्यादा दिन टिक नहीं सका . हम सब अपने अपने सामर्थ्य के हिसाब से जीवन जी रहे हैं . जैसा भी हो . हम हर संभव बेहतर जीवन जीने की कल्पना करते हैं . और उसी कल्पना के अनुरूप प्रयास करते हैं . बाकी आस पास के लोग और घटनाएँ उन्हें अलग अलग दिशाओं में हांकते रहते हैं . फिर भी मेरा जिया हुआ , मेरा संघर्ष यदि किसी से साझा हो . तो हो सकता है उसके जीवन में कुछ काम आ सके . हा हा हा हा . इन सब सोचों के बीच न ही लिखने का अभ्यास हुआ और न ही पढने का . बस केवल ख्याल चलते थे . कभी कभी कुछ लिख लिया आवेश में आकर . 

2010 - 11 में मैंने पत्रकारिता की तरफ रुख किया . अखबार के लिए रिपोर्टिंग की , लिखने के लिए अखबार पढने शुरू किये . फिर धीरे धीरे लिखने पढने का सिलसिला शुर हो गया . मेरा लिखा हुआ छाप भी दिया जाता था . लिखे का छप जाना , न छपने की टीस पर मलहम का काम करता रहा . पत्रकारिता के अपने विचित्र अनुभव हैं . उनका विस्तार से जिक्र फिर कभी किया जायेगा . अखबार से इतर पढने की ललक ने मुझे कुछ मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं से परिचय करवाया . उन्ही पत्रीकाओं से लेखकों के विषय में जानने का अवसर प्राप्त हुआ . कविता , कहानिया , निबंध , उपन्यास , आलोचना आदि अनादी विधाओं से परिचय हुआ . कुछ कुछ समझ आने लगा कि इतनी किताबें क्यों लिखी जा रही हैं . इन किताबों के पाठक कौन हैं . लिखना खुद को व्यक्त करने का सबसे सरल और सस्ता रास्ता है . जीवन में हो रही अनुभूतियों को संगृहीत किया जा सकता है . जिया हुआ वापस नहीं आ सकता . पर उसको संगृहीत किया जा सकता है . लिखना पढना जीवन के लिए उतना ही लाभप्रद होता है . जितना कि एक यात्रा में लोक , संस्कृति और भूगोल से संवाद से होता है . मेरे लिए लिखना , मतलब खुद से संवाद है . किन्ही कारणों से इसे न लिख पाना मेरे लिए बहुत कष्टकारी भी होता है . 

मैंने अपने जीवन में लिखने को सबसे आखरी पायदान पर रखा है . जब किसी घटना या किसी बात को लेकर मैं विचलित होता हूँ , या वह मनःस्थित मुझ पर हावी होने लगती है . मैं उसे किसी न किसी स्वरुप में लिख कर हल्का हो लेता हूँ . मेरे इस्र्द गिर्द लोग मुझसे कहते हैं . कि मेरे जीवन में स्थायित्व नहीं नहीं . इस बात का अनुभव मैं खुद करता हूँ . पर मेरे हिसाब से स्थायित्व गूढ़ होता है . हम बांध जाते हैं . बाँध लेते हैं . एक खूंटे से . कुछ गिने चुने लोगों से घिरे , कुछ गिनी चुनी जगहों में कैद हो जाते हैं . इस सोच का मेरे जीवन में मेरे काम पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है . इसलिए आज तक किसी एक काम पर ज्यादा देर टिक नहीं पाया . हाँ दिए गए या लिए गए काम को शिद्द्त्त से करने का माद्दा जूनून और निष्ठां हमेशा रहती है . 

अपने जीवन को पलट के देखता हूँ . तो पाता हूँ घाट घाट का पानी . पढाई के दौरान ही कंप्यूटर की सेल्स एन्ड सर्विस की शॉप खोलना . 2 साल पढाई के साथ साथ उसमें प्रगति देख गौरवान्वित होता था . पर इमानदारी और दरियादिली के चलते ज्यादा उड़ान नहीं भरी जा सकी . दिल्ली में कॉर्पोरेट सेक्टर की जॉब में किस्मत आजमाई . नौकरी मिली . 6 साल अपने जीवन के स्वर्णिम समय का अनुभव किया . घरवालों की पुकार और दिल्ली की आपाधापी ने मुझे वहां से भरा पूरा संसार छोड़ने को विवश कर दिया . पिता की  घर के कारोबार में हाँथ बंटाने की पेशकश ने जीवन में एक नए आयाम को दिशा दी . कॉर्पोरेट सेक्टर के अनुभवों को ग्रामीण अंचल के व्यवसायों में आजमाने का मौका ज्यादा दिन सुलभ नहीं रहा . " जैसा है वैसा ही रहने दो " के सिधांत पर घर के कारोबार से तौबा कर ली . लेकिन घरवालों ने उसी कारोबार के आधार पर मेरे लिए कमाऊ बहू हांसिल कर दी . कुछ दिन विवाह का रोमांच बरकरार रहा . फिर खाली बैठने की टीस की भटकन ने एक दिन एक अखबार के दफ्तर पर पटक दिया . जिले के स्ट्रिंगर से लेकर राज्य स्तर मान्यता प्राप्त पत्रकार  तक का 8 साल का सफ़र बहुत ही शानदार रहा .  सत्ता , नौकरशाही , राजनीति और आम जन जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों ने देखने का नजरिया बदल दिया . इतने वर्षों में मेरे भीतर फोटोग्राफी का शौक परवान चढ़ रहा था . जिसके चलते कुछ चुटपुट काम मिले . वो अधूरे किस्से अभी भी पुरे नहीं हुए हैं . जिनको पूरा करने की जिम्मेदारी अभी भी मेरे कन्धों पर है . 

 बचपन से लेकर इतने सालों में हमेशा घर का कारोबार सालता रहा . पिता अक्सर कहते थे . " मैंने इतना कर दिया है . कि आजीवन तुम कुछ न करो फिर भी बैठे बैठे खा सकते हो ." इस बात में मुझे तब तक बहुत दम लगती रही . और यह ठोस बात मुझे आवारगी करने की छूट हमेशा देती रही . मेरा बचपना एक बड़े से परिवार नुमा वृक्ष के नीचे पला बढ़ा . ताऊ-ताई  , बड़े ताऊ - बड़ी ताई और 14 भाई बहनों का बड़ा सा परिवार . बहुत बाद में मुझे अपने और चचेरे के बीच का अंतर समझ आया . हमारा परिवार जनपद हरदोई के छोटे से कसबे मल्लावां से ताल्लुक रखता है . संयुक्त परिवार था . हमारे बाबा अपने ज़माने में कभी प्रधान रहे थे . मैंने अपने बाबा को नहीं देखा .  उन्ही के रहते हुए  हमारे घर में व्यवसाय के तौर पर एक आंटा चक्की लगायी गयी . बाबा के ख़त्म होने के बाद वो जिम्मेदारी मेरे बड़े ताऊ ने उठायी . बाबा के नाम पर ही गाँव में एक इंटर कॉलेज भी था . संयुक्त परिवार के संयुक्त प्रयासों से इट भट्टा लगाया गया . एक से दो , दो से तीन भट्ठे .  

बीच  वाले ताऊ शिक्षक थे . मेरे पिता भारतीय वायुसेना में भर्ती हुए . 15 साल की नौकरी के बाद उन्होंने ऐक्छिक रिटायरमेंट ले लिया . वापसी के कुछ वर्षों के भीतर उन्होंने पेट्रोल पंप के लिए आवेदन किया . पिता की दौडभाग , व परिवार के अन्य सदस्यों की शुभेक्षा से आवेदन उद्यम में बदल गया . हमारे क्षेत्र का पहला पेट्रोल पम्प . परिवार के अथक प्रयासों और पूंजी से  पेट्रोल पम्प की सफल यात्रा के मध्य मल्लावां कोल्ड स्टोरेज का जन्म हुआ . फिर उसकी दूसरी इकाई दुसरे क्षेत्र में खोली गयी . इन सारे उद्यमों के उद्येश्य केवल और केवल क्षेत्र की सम्रध्ही का सपना था . जो कि हमारे परिवार के तीन मुखिया का था . इस नेकनीयती का असर हमारे व्यवसायों पर अच्छा खासा दिखता था . हमारे सभी उत्पाद पुरे क्षेत्र में जाने जाते . हमारे उत्पाद ब्रांड बन चुके थे कभी . जनपद मुख्यालय से लेकर आसप पास के क्षेत्र में हमारे परिवार का नाम था . व्यवसायों का नाम था . खासतौर से हमारे परिवार के व्यवसाय और रहन सहन में कंट्रास्ट की चर्चा खूब होती थी . ठेठ देसी , अतिसाधारण रहन सहन , मेल जोल , उठक बैठक समाज से जुड़े हुए . 2010 में कुछ ऐसी घटना घटी . कि सब तितर बितर हो गया . उन्नति थम गयी . अवनति शुरू हो गयी . परिवार में वाद विवाद . आपस में सारे ताल मेल टूटने लगे . सभी व्यवसायों की गति धीमी होने लगी . 

भट्ठे बंद हो चुके थे , कोल्ड स्टोरेज खड़े हो गए थे . बैंक की देनदारियां बढ़ने लगी थी . इस परिवार से जुड़े लगभग 50 कर्मचारियों की नौकरी पर संकट आन पड़ा था . घर भीतर युद्ध ऐसे हालात हो गए थे . एक बड़े से घर में तीन घर हो गए थे . पेट्रोल पम्प धीमी गति  से ही सही लेकिन चल रहा था . घर के अलग अलग सदस्यों ने इसका संचालन किया . जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे हालत हो चुके थे . मैं दूर दूर से ही स्थितियां पर नज़र बनाये हुए था . इतना समझता था कि मामला परिवार का है . और सुलत भी जायेगा . पेट्रोल पंप पिता के नाम पर था . इसके बावजूद हालातों से खिन्न पिटा जी ने वहां जाना छोड़ दिया था . वहमी बंटवारे में साड़ी संपत्ति मौखिक रूप से बाँट गयी थी . देनदारियों को किसी तरह लड़ झगड़ के निबटाया गया . पेट्रोल पम्प हमारे हिस्से आया था . जिसके एवज में हमें कुछ रकम दो अन्य पार्टियों से मिलनी थी . पर वैसा आज तक नहीं हुआ . मेरा एक भाई की नौकरी लग गयी . वो उसमें मशगूल हो गया . मेरे कदम गाँव घर में नहीं टिकते थे . इसलिए अधिकतर समय दिल्ली , लखनऊ कानपूर , अयोध्या में गुजरा . पेट्रोल पंप के प्रति पिता की अरुचि मुझे समझ आने लगी थी . कई वर्ष यह पम्प मैनेजर के भरोसे चलता रहा . पिता की पेंशन और कुछ जमा पूंजी का हिस्सा इस शिथिल होते पम्प में खपा जा रहा था . 

मेरी सफलता हमेशा क्षणिक रही . आज भी तकनीकी रूप से मुझे सफल नहीं कहा जा सकता है . कुछ साल पहले जब मैंने खुद को अपने परिवार के सदस्यों से तुलना शुरू किया . तो लगा कि मैं दुनिया में हार के आया हूँ . बाकी सब घर में हारे हुए हैं . पेट्रोल पम्प की गिरती साख और पिटा की चिंता को देखते हुए मैंने वापस आने का फैसला किया . फैसला सही था या गलत . अभी तक इसका आंकलन नहीं कर पाया हूँ . मुझे आज भी लगता है कि मेरे पांव कहीं भी टिक नहीं सकते . 

मैं लिखने में कितना सक्षम हूँ . इस बात से मैं इत्तेफाक नहीं रखता . मेरी मौलिक भाषा हिंदी है . जिसे मैं आम बोलचाल में इस्तेमाल करता हूँ . लिखने में भी इसी से काम चलता हूँ . कॉर्पोरेट दुनिया में अंग्रेजी का चलन था . जब से पत्रकारिता में कदम रखा . हिंदी सर्वोपरि हो गयी . अंग्रेजी पीछे छूट गयी कहीं . चूँकि हिंदी हिंदी लिख पढ़ सकता हूँ . आस पास दुनिया जहां में हो रही घटनाओं को समझ सकता हूँ . अपने तर्कों से सही गलत का आंकलन कर सकता हूँ . इसलिए इस बार पिछले कुछ वर्षों के अनुभवों को एक बड़े कैनवास पर उकेरने की कोशिश कर रहा हूँ , इसमें कहाँ तक सफल रहूँगा . इसकी परवाह नहीं .



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तेल और तेल की धार ....... तेल और तेल की धार ! 

अभी कुछ दिन पूर्व अपना बोरिया बिस्तरा बाँध के वापस लखनऊ आ गया था . जिसके लिए काम करता था . उनके साथ लाइन लेंथ बिगड़ रही थी . इसी लिए उसे वहीँ विराम देकर आगे बढना ही मेरे और उनके लिए श्रेष्ठकर था . लखनऊ में मेरा 6 बाई 8 का कमरा था . जिसका मोह मुझे हमेशा से रहा . वह कमरा छोटा जरुर था . लेकिन उसमें हद दर्जे का सुकून था . पिछले एक दशक से मेरा केंद्र लखनऊ ही था . सप्ताह में एक या महीने में एक बार घर परिवार के साथ बिता कर वापस लखनऊ या अपने काम वाली जगह पर स्थापित हो जाता था . एक दिन पिता का फोन आता है . और मुझे वापस आने की सलाह देते हैं . उनका कहना था कि . बहुत भटक लिए . अब आओ यहाँ . और पेट्रोल पम्प देखो सुनो . मैं भी थोडा सा आराम करना चाहता हूँ . उनकी इस बात में मुझे बहुत थकान दिखी . मैं भी कोई नया ठिकाना चाहता था . इस बार मैंने घर वापस आने का मन बना लिया था . माँ पिता , पत्नी और बच्चा हरदोई शहर में रहते हैं . पेट्रोल पम्प हरदोई शहर से लगभग 55 किलोमीटर दूर स्थित क़स्बा मल्लावां में है . मैंने कुछ दिन परिवार के साथ गुजारे . लेकिन मेरा लक्ष्य मेरा ख्याल पेट्रोल पम्प ही था . मल्लावां मेरा दुसरा घर था . गर्मियों की छुट्टियों में हम वहां  छुट्टियाँ बिताने आते थे . कारोबार होने के कारण . मेरे पिता अक्सर वही रहते थे . फिर किसी जरुरत या 10 या 15 दिन में हमारे पास आते थे .इसलिए मल्लावां से लगाव था . यहाँ के लोग मेरे जेहन में एक दम ताज़े थे . 

कुछ दिन हरदोई में बिताने के बाद . पिता से आशीर्वाद लिया और निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर . मेरी माँ और मेरी पत्नी मेरे इस फैसले से बहुत खुश थीं . क्यों कि अब मैं उनके और करीब रहने वाला था . अपने घर के कारोबार को संभालने वाला था . संभालना बहुत बड़ी जिम्मेदरी होती है . घरवालों की अपेक्षाओं में समभालना शब्द और जुड़ जाएगा तो पूरा घर आप के कंधोंपर पर महसूसा होने लगता है . कुछ दिन पहले जब मैं लखनऊ से निकला था . मैंने फेसबुक पर कुछ लेने लिख कर लिखा था . " नया ठिकाना , अब चल दिए तेल और तेल की धार देखने " . कुछ लोग पुराने जानने वालों ने देर आये दुरुस्त आये जैसे कमेन्ट भी पोस्ट किये . अच्छा लगा मुझे भी . जैसे मेरे फैसले में कुछ और मत शामिल हो गए . बहुत सालों बाद हरदोई मल्लावां वाले रस्ते से गुजर रहा था . तो बीता हुआ कल एक एक कर के छेड़ रहा था . मेरी नज़र रास्ते में पड़ने वाले पेट्रोल पम्पों पर भी थी . पहले और अब में कितन अन्तर आ गया है . तब कसबे में एक या दो पेट्रोल पम्प होते थे . अब तो एक एक कसबे में  4 से 5 तक पेट्रोल पम्प हैं. अच्छा है गाड़ियाँ बढ़ी हैं तो पेट्रोल पम्पों भी बढ़ने चाहिए . फिर ग्राहकों के दृष्टिकोणवाला से देखा जाये तो जितना ज्यादा कम्पटीशन उतना ज्यादा ग्राहकों के पास विकल्प और फायदा . 

यूँ तो हरदोई और मल्लावां की दूरि एक से डेढ़ घंटे की है . लेकिन मुझे वहां पहुचने में लगभग ढाई घंटे लग गए . एक दो जगह रुक के चाय पी . कुछ पेट्रोल पम्पों पर रुक कर उनकी करयाविधि देखि . मल्लावां पहुचने से कुछ दूर पहले से ही माल्लावां की खुशबू आणि शुरू होगी गयी थी . विवेक की टंकी फिर चुंगी नंबर दो की फट्टा टाकीज , कंप्यूटर वाले जावेद की दूकान . बड़े चौराहे पर जगदीश के समोसे . थोडा और आगे बढ़ने पर बीच वाले ताऊ का मकान . जहाँ हमारा बचपना गुजरता था . छोटे चौराहे पर वर्मा इलेक्ट्रोनिक्स चुंगी नंबर एक से हमारे गाँव की ओर जाती सड़क . बी एन इंटरनेशनल कॉलेज . राम अवतार की टंकी के बाद हमारी टंकी . जैसे गेंद स्विंग करते हुए स्टंप  पर जाकर लगी हो . यहीं से पैदल रास्ते पर हमारा गाँव भी है . जहां हमारे बड़े ताऊ रहते हैं . यदि पहले का समय होता . तो संभवतः मैं यहाँ आने से पहले अपने दोनों ताऊ के यहाँ जाता .

 मेरे पहुँचने पर हमारे पेट्रोल पम्प के कार्यकर्ताओं के चेहरे खिल गए . नाटे कद का गोरा चिट्टा जीतेन्द्र , गोल मुहं सांवला सा राम जी, उनके चचेरे भाई अलोक  और लम्बा अमिताभ बच्चन स्टाइल ब्रिजेश कुमार  सेल्स मैन ग्राउंड पर काम करते थे . ब्रिजेश का भाई रितेश जो कि लम्बा चौड़ी कद काठी वाला कभी कभार संकट के समय अपने भाई की मदद करने आ जाता था . इन सबके अपने अपने गुण दोष थे . जो कि सबमें होते हैं .  सेल्स ऑफिस में हमारे परिवार के सदस्य नुमा पुराने कॉमर्स ग्रेजुएट रविन्द्र कुमार बतौर अकोउन्तंत कम मेनेजर पिछले 20 साल से इस पम्प के मुलाजिम हैं . उनकी ईमानदारी की कसमें खायी जा सकती हैं आँख मूँद के . जितनी उनकी कलम मजबूत है उतने ही वो गैर सामाजिक व्यक्ति हैं . काफी सालों के बाद मेरा यहाँ पहला दिन था . इसलिए ज्यादा कोई लोड नहीं लिया . और न ही किसी कर्मचारी पर किसी प्रकार का लोड दिया . पहले दिन केवल हलकी फुलकी मुलाक़ात . 

पेट्रोल पम्प के सेल्स ऑफिस के ठीक विपरीत दिशा में एक किनारे सड़क की ओर  तीन  मंजिला घर बना है . मैं उसे हमेशा से वाच टावर कहता हूँ . घर की एक खिड़की पेट्रोल पंप की तरफ खुलती है . बरामदे के झरोखे मुख्य सड़क की तरफ मुखातिब हैं . घर के पीछे नज़र रखने को कुछ रोशनदान बने हैं . ऐसे वाच टावर लगभग हमारी हर संपत्ति पर बनाये गए थे . जहाँ रहा जा सके और नज़रें रखी जा सके . इस घर में नीचे दो बड़े बड़े हॉल , ऊपर दो हॉल , संकरी गली में टॉयलेट , बाथरूम . उससे सटा हुआ पतला सा रसोईं घर . तीसरी मंजिल पर भी एक कमरा बना हुआ है . घर की दायीं तरफ एक लकड़ी की टाल है . इस पूरे घर में केवल एक कमरा रिहाइश के लिए इस्तेमाल होता था . उसी में पिता ने सालों साल गर्मी जाड़े बरसात काट डाले . अब मुझे इसमें अपना बसेरा बनाना था . इस घर की एक खासियत है . घर में सैकड़ों छिपकलियाँ हैं , चूहे हैं , मकड़ी हैं , चींटी कीड़े मकौड़े भरपूर हैं . पानी की सप्लाई ऊपर तक नहीं है . इसलिए किसी न किसी सेल्समैन या खुद ही नीचे से पानी लाना पड़ता . पिता की दो बाल्टी सुबह शाम भर कर ऊपर आ जाती थी . एक कंटेनर पीने वाला पानी . 

दरअसल पानी की व्यवस्था पेट्रोल पंप की खुद की नहीं थी . पेट्रोल पंप की अप्रोच रोड पर एक हैण्ड पाइप है . उसमें मौसम के अनुकूल पानी निकलता है . इसलिए गर्मी सर्दी में पिता उसी का पानी ऊपर चढ़वाया करते थे.  

बहुत साल पहले मैं एक बार पेट्रोल पंप संभालने आया था . कुछ दिन यहाँ रहा . पर यहाँ रहना कभी सरल नहीं रहा . बुनियादी सुविधाओं का समझो  अकाल सा पडा रहता था यहाँ . कुछ दिन यहाँ रुक के काम किया . काम को समझा . उसी दौरान पेट्रोल पंप के पीछे करीब 100 मीटर दूर से कोल्ड स्टोरेज के बर्फ खाने के टैंक से पानी की पाइप लाइन बिछवाई थी . ऑफिस में मुनीम की कुर्सी के अलावा एक और कुर्सी मेज दलवाई . इसी के साथ कुछ और फेरबदल करवाए थे . फिर भी हमेशा कमी सी लगी रहती थी . न खाने का ठिकाना . न रहने की मुफीद जगह . लगभग 3 महीने मैंने हरदोई से मल्लावां रोडवेज से उप डाउन किया . लेकिन संयुक्त परिवार की टेढ़ी नज़रों को मेरा काम भाया नहीं . और मुझे यहाँ से जाना पडा . अब जब मैं फिर से यहाँ आया हूँ . तो मुझे मेरे द्वारा किये गए बदलाव महसूस होते हैं . मेरे द्वारा किये गए बदलावों के बाद जड़ता के निशाँ भी मिलते हैं . 

 मल्लावां कसबे में ठीक ठाक साफ़ सुथरे खाने की जगहें न के बराबर थीं. पेट्रोल पम्प के ठीक सामने झिंगुरी का छोटा मोटा ढाबा था . जिसकी शामें दारू पार्टी से सजी रहती थी . ऊपर से तंदूरी रोटी के आलावा कोई विकल्प नहीं था . थोड़ी ही दूर कसबे की ओर शिवराम ढाबा है . शिवराम का ढाबा नाले के पास बना था . भीड़ तो खूब रहती थी . लेकिन मुझे खाने से पहले वहां का नाला दिख जाता था . मल्लावां चौराहे पर विनोद का ढाबा था . उसके यहाँ तवा रोटी जरुर मिलती थी . लेकिन पुलिस वालों भीड़ हमेशा लगी रहती थी . क्योकि वो ठाणे के नज़दीक था . मुझे खाना बनाने और खाने का शौक हमेशा से रहा . लेकिन उसके लिए हमारी रसोईं एक दम ठीक नहीं थी .

 मैंने मन ही मन सोचा , कि इन बेकार के सवालों में क्यों उलझना . मेरा मकसद है इस पम्प की सूरत बदलना . लिहाजा मुझे उसी पर काम करना चाहिए . बाकी सब छोटी मोटी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है . लेकिन मेरे भीतर घबराहट घर कर रही थी . कि  यह सब कैसे होगा . पंप की सूरत बदलने को पैसा चाहिए . जो कि नहीं है . घर में रहने के लिए उसमें आमूल चूल परिवर्तन चाहिए . उसके लिए भी पैसा चाहिए . जो कि नहीं है . मेरी सबसे बड़ी चुनौती यही थी . 

 किसी तरह एक हफ्ते यहाँ समय गुजारने के बाद मैं वापस हरदोई चला गया . मुझे लगा कि सबसे पहले क्या है और क्या होना चाहिए के अंतर को ठीक ठीक समझना चाहिए . फिर उन्हें कागज़ पर उतारना चाहिए . फिर उस पर काम करना उचित रहेगा .खेत खलिहान और सेल्समेन !



किसी और शहर में मैं जब कभी अपनी बाइक में तेल  डलवाता .  तो उस पम्प के सेल्समेन को गौर से देखता . शहर के पेट्रोल पम्पों के सेल्समेन के चेहरे और ग्रामीण अंचल के पम्पों के सेल्समेन के चेहरे पर जमीन आसमान का अंतर दीखता है . शहरी पेट्रोल पम्प का सेल्समेन चमकता चेहरा लिए ग्राहकों के प्रति कृतज्ञ रहता है . तेल डालने से पहले डिस्प्ले में ज़ीरो दिखाता है , पम्प पर मौजूद तमाम पेमेंट गेटवे को संचालित करना जानता है . किसी कार में बैठे कस्टमर को इज्ज़त की निगाह से देखता है और सेवा भाव में तत्पर रहता है . एक आध अपवाद के तौर कुछ शहरी सेल्समेन ऐसा नहीं भी करते होंगे . 
इसके ठीक उलट ग्रामीण अंचल  के सेल्समेन का बॉडी लैंग्वेज अलग ही रहती है . गुटका , खैनी , पान और शाम की पाली में ठर्रे की आदत तो आम बात है . ड्रेस के चाहे जितने सेट उन्हें दे दिए जाएँ . लेकिन लम्बे अरसे तक केवल शर्ट ही उनके तन पर दिखती है .  पैंट घर या बाहर सितेमाल होने लगती है . कैप और बूट में गर्मी सर्दी का बहाना चलता रहता है . आई कार्ड तो बड़ी चीज़ है . तेल डालते समय शायद उनके भीतर यह भाव रहता हो कि वो इस दुनिया का सबसे बड़ा एहसान कर रहे हों . डीलर पर , ग्राहक पर और तेल कंपनी पर . ग्राहकों के संग गाली गलौज , मार पीट कोई बड़ी बात नहीं उनके लिए . कोई ग्राहक उनकी काबिलियत पर सवाल उठाये तो शायद उसे तेल देने से इनकार भी कर दें . डीज़ल गाडी में पेट्रोल और पेट्रोल गाडी में डीज़ल डाल के सारा दोष ग्राहक पर ही मढ़ सकते हैं . पेट्रोल पम्प की गिरती बढती सेल से उनका कोई प्रत्यक्ष सरोकार नहीं दीखता . 
यही कारण है . सेल्समेन के प्रति ग्राहकों का अविश्वास हमेशा ताज़ा रहता है . उनकी मुख्य शिकायत ग्राहकों के प्रति व्यवहार और तेल डालते समय नोज़ल में छेडछाड रहती है . 

मैं कोई दावा तो नहीं करता .   लेकिन मुझे इनके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण समझ में आते हैं . जिनमें प्रमुख है . ग्रामीण परिवेश , काम करने के घन्टे , कम तनख्वा और न के बराबर ट्रेनिंग . ग्रामीण अंचल में परिवार का भरण पोषण खेत खलियान से ही होता है . इसलिए दिनचर्या का कुछ समय उन्हें ऐसे कामों के लिए सुरक्षित करना पड़ता है . 

मैंने अपने पम्प पर कार्य कर रहे सेल्समेन का साक्षात्कार किया . तो बहुत चौकाने वाले तथ्य सामने आये . पहला कि पेट्रोल पंप पर काम करना उनका शौक है . वो यहाँ शौकिया काम करते हैं . पेट्रोल पम्प का सेल्समेन  एक इज्ज़तदार काम है . दुसरा उन्हें काम करने के लिए घर से दूर नहीं जाना पड़ता . तीसरा इस काम से समाज में उनकी जान पहचान बढ़ जाती है . एक जगह का काम है इसलिए उन्हें कहीं भटकना नहीं पड़ता . तनख्वा के नाम पर उन्हें मात्र 3,500 प्रति माह मिलते थे . मैंने पूछा कि इतने कम पैसों में आप लोगों का घर का खर्च कैसे चलता है ? उनका जवाब था , कि चल जाता है क्यों की उनके अपने खर्चे यहाँ से निकलते रहते हैं . और घर के खर्चे खेती बाड़ी के कामों से निकलते हैं . 

मैंने पिता से सेल्समेन की कम तनख्वा का कारन पूछा . तो उन्होंने के कहा कि सेल्समेन बहुत पैसा परोक्ष रूप  से बना लेते हैं . जैसे फुटकर पैसे न होने का बहाना बना के दिन भर में 100 से 200 रुपये तक बना लेते हैं . इसके अलावा ये ग्राहकों से खेलते हैं . कभी कभी 100 का तेल मांगने पर 1. 00 लीटर को 100 दिखा के कुछ रुपये बचा लेते हैं . और एक बात जब सेल कम होगी तो कहाँ से कर्मचारी को मोटी तनख्वा डी जा सकती है . सेल बढे तो इनकी तनख्वा भी बढाई जाए . यह बात कुछ कुछ पहले मुर्गी आई की पहले अंडा आया जैसे उलझे सवाल जैसी ही थी .  इस अविश्वास की दो धारी तलवार पर नुक्सान ग्राहकों का होता था . और ग्राहकों का नुक्सान मतलब घटते ग्राहकों की संख्या से पम्प का नुक्सान . 
 
पेट्रोल पंप पर इतनी कम तनख्वा में काम करने के पीछे सेल्समेन के हाँथ कैश रहना है . जिसे वो वक़्त जरुरत किसी जुगाड़ से या किसी न किसी बहाने से  इस्तेमाल कर सकते थे . 
हरदोई जनपद के कुछ एक पम्प छोड़ कर कमोवेश सभी पम्पों के सेल्समेन की दशा यही थी . जहां लेबर लॉ और  मानव संसाधन की धज्जियाँ उडती हुयी प्रतीत होती थी . 

इस समस्या से निपटने के लिए एक दिन मैंने सभी सेल्समेन की मीटिंग बुलाई . मैंने उन्हें बताया कि वो देश की एक महारत्न कम्पनी के लिए काम करते हैं . जिसका नाम है भारत पेट्रोलियम . उन्हें बताया की यदि वो ग्राहकों के प्रति संवेदना रखते हैं और उनका विशवास जीतते हैं . तो सेल बढ़ेगी . सेल बढ़ेगी तो आमदनी बढ़ेगी . उन्हें रोजाना हुयी डीज़ल पेट्रोल की सेल को ध्यान में रखने की नसीहत दी . जिससे उन्हें ज्ञात रहे कि पिछले दिन उन्होंने कितना तेल बेचा . और अगले दिन कितनी बढ़त हांसिल कर सकते हैं . यही बढ़त सप्ताह और माह के अंत में भी महसूस करने को आदत में डालने को कहा . महीने के अंत में सेल के हिसाब से सबसे ज्यादा बिक्री करने वाले सेल्समेन को इनाम दिया जाएगा . इसके साथ ही साथ  एक एनी  महत्वपूर्ण घोषणाएं भी की गयीं . एक कि अगले माह से सभी सेल्स में की तनख्वा में हर माह 500 रुपये की बढ़ोत्तरी की जाएगी . और गर्मी में पंप की तरफ से ग्लूकोस की व्यवस्था की जाएगी . जिससे की सूरज की तपिश से उनके भीतर पानी की कमी न हो पाए . 

 मुझे यकीन था इस मीटिंग के बाद से सेल्समेन के भीतर पंप के प्रति लगाव बढेगा . और प्रतिस्पर्धा के चलते उनमें अच्छी सेल करने का हौसला मिलेगा . 
कुछ ही समय बाद . मैं चाहे पम्प पर होऊं या न होऊं . सेल्समेन का मेरे पास फोन आता . भाई जी इस सप्ताह मैंने इतना डीज़ल बेचा इतना पेट्रोल बेचा . यह सुन के मुझे बहुत अच्छा लगता था . कुछ सकारात्मक माहौल बनता दिखाई दे रहा था . 
मैं चाहता तो एकदम सख्ती करके ड्रेस और बाकी सभी चीज़ों को भी जबरदस्ती उन पर थोप सकता था . लेकिन मुझे उनके भीतर एक बेहतर सेल्समेन होने का भाव बोना था . जो की धीरे धीरे वक़्त के साथ ही संभव होना था .

  

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जय किसान !


हमारा यह पम्प भारत पेट्रोलियम का है . जो कि 19 92 में  कमीशंड ( शुरू हुआ )  हुआ था . कुछ ही वर्ष में यह पम्प 30 का होने वाला था . 26 वर्ष होने के बाद भी पेट्रोल पम्प पर बुनियादी सुविधाएँ नहीं थी . जो कि आयल मार्केटिंग स्टैण्डर्ड के हिसाब से होनी थी . फ्रीजर का ठंढा पानी , मुफ्त हवा , टेलीफोन , साइलेंट डी जी ( डीज़ल जेनसेट )

सेल्समेन की ड्रेस , स्वक्ष टॉयलेट ( महिला पुरुष ), स्वक्ष बाथरूम कुछ भी नहीं . मुफ्त हवा के नाम पर पुराना हवा वाला टैंक , ठंढे पानी के नाम पर पुराना बेकार पडा फ्रीज़र था . साइलेंट डी जी की जगह पुराना फट फट करता 5 किलो वाट का अल्टीनेटर जनरेटर था . हालाँकि मुनीम जी ( रविद्र कुमार ) की कृपा से  सेल्स ऑफिस में फर्स्ट ऐड बॉक्स था . जिसमें दवाएं भी थी . 

 यह डीलर साईट थी . जिसे कंपनी वाले डी सी साईट कहते थे . जो डी सी साईट नहीं होती है वो सी सी साईट होती है . यानी कंपनी साईट . देश के सभी पेट्रोल पम्प तीन केटेगरी के होते हैं . कंपनी ओन्ड डीलर ओपेरेटेड ( codo ) , डीलर ओन्ड डीलर ओपेरेटेड ( dodo ) और कंपनी ओन्ड कंपनी ओपेरेटेड ( coco ) . हम दूसरी केटेगरी में आते थे . इसलिए कंपनी वालों का ध्यान कम था इधर . इस पम्प की कमाई बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी की गयी थी . धंधे चलाये गए थे . लेकिन इस पम्प के भाग हमेशा अभागे रहे . न छत , न फर्श , न पर्याप्त लाइट्स . चार नोज़ल वाली  एक एम पी डी (  Multiple Product Dispenser ) यानी फ्यूल डिस्पेंसर . जिसमें से दो नोज़ल पेट्रोल के और दो डीज़ल के . कभी इस पम्प पर 4 मशीने हुआ करती थीं . इस पम्प ने वो दौर भी देखा है जब यहाँ की सेल 12 के एल प्रति दिन तक पहुँच जाती थी . यानी की एक टैंकर रोज .इतनी भीड़ लगी रहती थी . कि तेल आपूर्ति के लिए पुलिस बल का साहारा लेना पड़ता था . सेल्स काउंटर से पर्ची कटती थी . उस पर्ची को मशीन पर दिखा के तेल लिया जाता था . इस पम्प का इसकी शुद्धता और पूर्णता के चलते क्षेत्र में नाम था . फिलहाल इसकी सेल घट कर औसतन डेढ़ से दो के एल रह गयी थी . धीरे धीरे पम्प की शाख जाती रही . उस दौर में जब सेल अच्छी खासी थी .

 तब कंपनी ने कई ऑफ़र दिए . पंप में इन्वेस्ट करने को . लेकिन डीलर ( हमारे पिता ) ने उन सभी को ठुकरा दिया . यह कहते हुए . कि कंपनी के अंडरटेकिंग में डीलर कंपनी का गुलाम हो जाता है . कंपनी सेल्स का दबाव डालती है . मन मर्जियां  करती है . जब चाहती है जबरदस्ती तेल भेज देती है . मोबिल भेज देती है . और बेवजह डांट धौंस सुनने पड़ती है . यही वजह थी इस पम्प के साथ कमीशंड हुए बाकी पम्प समय के साथ बदलते रहे . आधुनिकता की ओर अग्रसित रहे . डीलर साईट होने की वजह से ज्यादा दबाव नहीं डाला जाता था . मुनीम जी बताते हैं . कि इस पम्प पर कई बार जांच हुयी . यहाँ तक दिल्ली से विजिलेंस टीम ने भी आकर जांच की . लेकिन आज तक कोई ऊँगली नहीं उठा पाया है . 

 हमारे पम्प का एरिया आम पेट्रोल पम्प की अपेक्षा बड़ा है  . पम्प के परिसर में 6 से 8 ट्रक खड़े होने की जगह रहती है . मल्लावां कस्बे से बांगर मोऊ रोड पर 2 किलोमीटर दूर . एकांत में . पम्प के पीछे मल्लावां कोल्ड स्टोरेज है . जिसकी दिवार पम्प की दीवार से सटी हुयी है . दायें तरफ एक बड़ा सा बाग़ है . और ठीक सामने कुछ आवासी मकान और खेत पात . सुरक्षा की दृष्टिकोण से यह पम्प हमेशा असुरक्षित रहा .  

15 के एल ( किलो लीटर ) पेट्रोल टैंक और 20 के एल ( डीज़ल टैंक ) . पहले हाई स्पीड डीज़ल का तेन भी था . जिसे बाद में हटवा दिया गया था . पम्प के दोनों छोर पर बड़े से पाकड़ के पेड़ थे . सेल्स ऑफिस के पास वाले पेड़ के नीचे एक तख़्त पडा रहता था . उसी पर सेल्समेन खली समय में विश्राम किया करते थे . उसी के ठीक पीछे हवा वाली पुरानी लोहालाट मशीन एक पिंजड़े में कैद थी . 

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