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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

सखी

मेघाबास : चलें ?
दिलरुबा : कहाँ !
मेघाबास : जहाँ मैं बताऊँ !
दिलरुबा : भक्क
मेघाबास : चलें ? ( गहरी सांस लेते हुए)
दिलरुबा : अरे कहाँ बाबा, पूछा तो !
मेघाबास : नमी देखी है कहीं ?
दिलरुबा :  ऊँ हूँ ! एक अरसे से सूखा पड़ा है मन , कभी बारिशें जो आयीं उन्हें सहेजने का कारण नही मिला कोई।
मेघाबास : चल ना !
दिलरुबा : मुझे नही जाना । (झुंझलाकर)
मेघाबास : गुस्सा क्यों करती है। वैसे तो बड़ी इठलाई घूमती थी। मटक मटक के हवा पर सवार जंगल, नदियाँ पार कर गुम हो जाती थी। कोई पुकार तुम्हे रोक नही पायी । अब क्यों बुझी बैठी है उकड़ू नदी के बीच, चट्टान पर।
दिलरुबा : देखो मुझे एकांत चाहिए । इसलिए बैठी हूँ यहां । शोरशराबे से दूर ।
मेघाबास : चलो तुम बैठो सुकून से और आँख भी बन्द कर लो। कान बन्द आँख बन्द !
दिलरुबा : बेहतर है !
मेघाबास : एक बात बोलूँ ( दिलरुबा के कान के पास जाकर )
दिलरुबा : हम्म !
मेघबास : मैं तुम्हारी आँख पर पट्टी बाँध ले जाना चाहती हूँ कहीं। तुम बस महसूसना मौसम को, गन्ध को, हवा के स्पर्श को, खुद को।
दिलरुबा : ठीक है।

मेघाबास : कितना अच्छा होता हम खुद को एक दूसरे से बदल पाते। या साझा करते ।

दिलरुबा : हम जो हैं, वही हम हैं।
मेघाबास : शांत रह, बिना बोले नही रहा जाता तुझसे।

मेघाबास बादलों सरीखे मजबूत कंधों पर दिलरुबा को लिए फिरती रही। धरती की ऊष्मा को भाँपती... दिलरुबा की आँखें झर झर झरती रही ओस की बूँदों की तरह।

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